गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 570

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-7
ज्ञान-विज्ञान-योग
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(2)
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं
वक्ष्याम्यशेषत: ।
यज्ज्ञात्वानेह भूयोऽन्यत्
ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥

सविज्ञान-ज्ञान[1]वह तुझ को
कहता संप्रति अब निःशेष।
इस लोक में जान जिसको
रहता ज्ञातव्य न कुछ अवशेष।।

सविज्ञान-ज्ञानः-

ज्ञान उस समझ को कहते हैं जिसके द्वारा मनुष्य यह जान लेता है कि सृष्टि नाशवान पदार्थों में केवल एक अविनाशी-तत्त्व ही समा रहा है और उस अविनाशी-तत्त्व से ही नाशवान पदार्थों की उत्पत्ति होती है। अतः परमेश्वर का ज्ञान समष्टि रूप में ही “ज्ञान” है इसके विपरीत यही ज्ञान[1] व्यष्टि-रूप में होना “विज्ञान” कहलाता है। ज्ञान विज्ञान अथवा परमेश्वरीय ज्ञान प्राप्त हो जाने पर और कोई अन्य ज्ञान या बात जानना बाकी नहीं रहता इसको जान लेना सब कुछ जानना होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. परमेश्वरीय-ज्ञान

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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