गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय-7
ज्ञान-विज्ञान-योग
ज्ञान-विज्ञान-योग
(2) सविज्ञान-ज्ञानः-ज्ञान उस समझ को कहते हैं जिसके द्वारा मनुष्य यह जान लेता है कि सृष्टि नाशवान पदार्थों में केवल एक अविनाशी-तत्त्व ही समा रहा है और उस अविनाशी-तत्त्व से ही नाशवान पदार्थों की उत्पत्ति होती है। अतः परमेश्वर का ज्ञान समष्टि रूप में ही “ज्ञान” है इसके विपरीत यही ज्ञान[1] व्यष्टि-रूप में होना “विज्ञान” कहलाता है। ज्ञान विज्ञान अथवा परमेश्वरीय ज्ञान प्राप्त हो जाने पर और कोई अन्य ज्ञान या बात जानना बाकी नहीं रहता इसको जान लेना सब कुछ जानना होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ परमेश्वरीय-ज्ञान
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज