गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
कर्म-योग
इस विवेचन से अतः यह असंदिग्ध रूप से स्पष्ट है कि “यज्ञाद्भवति पर्जन्यो” वाक्य में “यज्ञ” शब्द प्रकृति के यज्ञ-कर्म के लिए प्रयुक्त किया गया है न कि मानव-सृष्टि द्वारा किए जानेवाले यज्ञ-याग हवनादि के अर्थ में। लोकमान्य तिलक ने इस श्लोक 14 पर टिप्पणी करते हुए मनुस्मृति अध्याय 3 श्लोक 76[1] का भाव लिखा है जो इस प्रकार है - “यज्ञ की आग में दी हुई आहुति सूर्य को मिलती है और फिर सूर्य से[2] पर्जन्य उपजता है; पर्जन्य से अन्न और अन्न से प्रजा उत्पन्न होती है”। मनु का यही श्लोक महाभारत के शान्ति-पर्व में अध्याय 262 का श्लोक 11वां होना कहा गया है। मनुस्मृति के श्लोक का जो भाव लो. मा. तिलक ने लिखा है उसमें “यज्ञ की आग में दी हुई आहुति सूर्य को मिलती है” वाक्य में “यज्ञ” शब्द मनुष्यों द्वारा किए जानेवाले यज्ञ-याग-हवनादि वैदिक कर्म-काण्ड करना समझा गया है जिनकी आहुति सूर्य तक जाना और सूर्य को मिलना कहा है; दूसरा वाक्य जो मनुस्मृति के भाव का है वह यह है - “और फिर सूर्य से [3] पर्जन्य उपजता है” इमसें “सूर्य से” वाला वाक्य स्पष्ट करता है कि सूर्य से पर्जन्य तब उपजता है जब परम्परा से चली आ रही यज्ञ-क्रिया की आहुति सूर्य को मिलती है। यदि कोष्ठान्तर्गत अर्थात् वाले वाक्य को हटा दिया जावे तो केवल “और फिर सूर्य से पर्जन्य उपजता है” यह वाक्य रहता है। सूर्य से पर्जन्य कैसे उपजता है? इसका उत्तर जो विवेचन ऊपर अध्याय 9 श्लोक 19; अध्याय 13 श्लोक 20 की पुष्टि द्वरा किया गया है उससे मिल जाता है। अतः “यज्ञाद्भवति पर्जन्यो” वाक्य में यज्ञ शब्द प्रकृति के कर्म (यज्ञ) के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है न कि मनुष्यों द्वारा किए जानेवाले वैदिक यज्ञ-याग आदि कर्म से। इससे इस श्लोक का अर्थ सुबोध, सरल, बुद्धिगाह्य तथा स्वाभाविक हो जाता है जो इस प्रकार होता है - “अन्न से जीव पैदा होता है; अन्न से वर्षा उत्पन्न होता है; और वर्षा प्रकृति द्वारा होती है। जीवोत्पत्ति होना, अन्न का होना, वर्षा का होना, यह सब प्रकृति के यज्ञ-कर्म हैं।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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“अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते।
आदित्याज्जायते वृष्टिर्विष्टेऽर्न्नं ततः प्रजाः।।” ( मनु अ. 3- 76) - ↑ अर्थात् परम्परा द्वारा यज्ञ से ही
- ↑ अर्थात् परम्परा द्वारा यज्ञ से ही
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