गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
कर्म-योग
(3) जीव को मन, बुद्धि, देह, इन्द्रियाँ आदि का अभिमान अज्ञान के कारण होता है किन्तु परमब्रह्म परमेश्वर ब्रह्माण्ड और देह की उपाधि धारण करके भी ब्रह्माण्ड या देह का अभिमान नहीं करता। (4) जीवात्मा कर्म के आधीन होने से कर्मात्मा है किन्तु परमात्मा जीव के कर्म से या कर्मफलों से लिप्त नहीं होता। इसलिए अव्यय अविकारी है। (5) जीवात्मा स्थूल[1] देह तथा लिंग देह से युक्त है। पाँच कमेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्राएँ[2] मन तथा प्राण मिलाकर सत्रह तत्त्वों का लिंग-शरीर प्रत्येक देह में रहता है। पंचभूतात्मक स्थूल शरीर छूटने पर जीवात्मा के साथ यह लिंग-शरीर दूसरी देह में प्रवेश करता है। इस लिंग-देह से जीवात्मा सदा युक्त रहता है और इसके द्वारा ही स्थूल देह के साथ जीवात्मा का सम्बन्ध रहता है। लिंग-शरीर के साथ जीवात्मा का सम्बन्ध तब तक ही रहता है जब तक जीव अज्ञान रहता है अज्ञान नष्ट होने के बाद लिंग-देह का सम्बन्ध जीवात्मा से छूट जाता है लिंगदेह नष्ट हो जाती है और इसके अभाव में स्थूल शरीर का निर्माण नहीं होता। इस प्रकार लिंग-शरीर और स्थूल-शरीर दोनों का अभाव हो जाता है और केवल जीवात्मा ही अपने यथार्थ स्वरूप में रहता है। यही “उत्क्रान्ति-वाद” है तथा जीव[3] का “देहावस्थितभाव” है। लिंग-देह के कारण ही जीवात्मा को दुःख का अनुभव होता है; परमात्मा को लिंग-देह ही उपाधि न होने के कारण दुःख नहीं होता। वह निरंजन निर्विकार है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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