गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 294

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 3
कर्म-योग
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(8)
नियतं कुरु कर्म त्वं
कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते
न प्रसिद्धयेदकर्मणः।।

(8)
नियत-कर्म[1] करो तुम अवश्य ही
है अकर्म से श्रेष्ठ कर्म ही।
अकर्मण्य यदि बन तुम जावोगे
तो शरीर-यात्रा[2] कर न पावोगे।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. धर्मशास्त्रों द्वारा चातुर्यवर्ण व्यवस्था में निर्धारित किए गए स्वधर्म-रूप कर्तव्य कर्म।
  2. “शरीर यात्रा कर न पावोगे” कहने का तात्पर्य यह है कि अपने क्षात्र-धर्मानुकूल स्व-धर्म व कर्तव्य रूप युद्ध न करने से अध्याय 2 के श्लोक 33 से 36 में वर्णित परिणाम होंगे तुम निन्दा व अपयश के पात्र बनोगे और तुम्हारा जीवन निन्दा, व अपयश सुनते सुनते भार युक्त हो जावेगा, उसे व्यतीत करना कठिन हो जाएका और मृत्यु के पश्चात् भी सफल व सिद्ध नहीं माना जावेगा।

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अंतिम पृष्ठ 1142

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