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गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
कर्म-योग
(1) नैष्कर्म-सिद्धि किसे कहते हैं इसका विवेचन अध्याय 18 के श्लोक 46 की टिप्पणी में देखो। भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म शून्यता को निष्कर्म होना नहीं कहा है। (2) कर्म का त्याग। कर्म करना ही छोड़ देने से कोई निष्कर्म नहीं होता (3) "प्रकृतिज-गुणों से हो विवश ही"-यहाँ मनुष्य व जीवमात्र का सम्बन्ध "कर्म" से होना बताया है। सांख्यमत के सत्कार्यवाद के अनुसार कारण-रूप प्रकृति के सत्त्व-रज-तम गुण कार्यरूप मानव में तथा समस्त सृष्टि में वर्तमान रहते हैं। यह त्रिगुणात्मक प्रकृति अपने सत्त्व-रज-तम गुणों के अनुसार इन्द्रियों का संयोग बाह्य-विषयों से होने पर कर्म कराती है अत: जीव-सृष्टि बिना कर्म किए नहीं रह सकती प्रकृति से विवश होकर कर्म करने ही पड़ते हैं। सत्त्व-रज-तम गुणों से उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि विकास मनुष्य को कर्म करने के लिए प्रवृत्त करते है और इन विकारों से अभिभूत होकर मनुष्य को विवश हो कर्म करने ही पड़ते हैं। किंतु कर्म का भला या बुरा होना कर्ता की वासना पर निर्भर होता है। यदि वासना सत् या तो कर्म भी सत्, शुद्ध, पवित्र व पुण्य-मय है और यदि कर्ता की वासना अशुद्ध, दम्भमय, स्वार्थपरायण काम्य भावना से युक्त है तो उसका वह कर्म भी असत् अशुद्ध और पाप-मय है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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