गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 258

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 2
सांख्य-योग
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श्लोक 53 में कहा है कि- “समाधिस्थ बुद्धि अचला तब, योग-युक्त हो जावेगी” - इस वाक्य में भगवान श्रीकृष्ण ने यह कहा कि नाना प्रकार की फल-श्रुतियों को सुनने के कारण हे अर्जुन! तुम्हारी बुद्धि विप्रतिपन्न [1] हो गई है अतः तुम अपनी बुद्धि को समाधिस्थ [2] करो; बुद्धि के स्थिर होने से साम्य-बुद्धि-योग प्राप्त हो जावेगा। साम्य-बुद्धि की परिभाषा व इसके गुण व लक्षणों का तथा साम्य-बुद्धि वाले व्यक्ति का वर्णनः-

अध्याय 2 श्लोक 55 से 71 में; स्थित-प्रज्ञ व साम्य-बुद्धि की व्याख्या से।

अध्याय 4 श्लोक 18 से 24 व 35 में साम्य-बुद्धि वाले की मनोवृत्ति के वर्णन से।

अध्याय 5 श्लोक 17, 19 व 20 से 27 में समत्व स्थित ब्रह्मस्थ हो जाता है के वर्णन से।

अध्याय 6 श्लोक 7 से 10 व 29 व 32 में सम-भाव-बुद्धि के लक्षणों के वर्णन से।

अध्याय 14 श्लोक 22 से 25 में यह वर्णन किया है कि साम्य-बुद्धि-युक्त त्रिणुणातीत होकर समदर्शी हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भ्रामित व घबराई हुई
  2. स्थिर अचल व एकाग्र

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
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1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
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14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
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16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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