गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
सांख्य-योग
श्लोक 47 में यह कहकर कि त्रिगुणमयी वेदों की फल-श्रुतियों से अतीत होकर रज-तममयी भोग-ऐश्वर्य की कामना न कर फलाशा-विरहित अपना कर्तव्य कर्म करते रहना चाहिए; श्लोक 45 व 46 का स्पष्टीकरण किया है और कर्म-योग-मार्ग के चार मूलभूत सिद्धान्त प्रतिपादि किए हैं- (1) पहले सिद्धान्त में यह बताया है कि कर्म करना प्राणिमात्र का व मनुष्यमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है क्योंकि अध्याय 3 श्लोक 10 व 15 के अनुसार सृष्टि और कर्म की उत्पत्ति साथ-साथ हुई है अतः सृष्टि और कर्म का सह-अस्तित्व है सृष्टि है तो कर्म है और कर्म है तो सृष्टि है एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव नहीं। अतः जीवमात्र की उत्पत्ति कर्म के साथ होने के कारण कर्मरूप जन्म-सिद्ध अधिकार को काम में लिया जा सकता है; काम में लेना उचित है; और प्रकृति-जन्य स्वाभाविक गुणों के अनुसार काम में लिया भी जाता है। (2) दूसरा सिद्धान्त यह निरूपित किया गया है कि “कर्म-फल पर किसी का अधिकार नहीं होता।” कर्म-फल का मिलना या न मिलना; और यदि मिले भी तो अच्छा मिले, बुरा मिले या मिश्रित मिले; अदृष्ट के हाथ में रहता है। प्राप्ति या कर्म-फल पर अधिकार कभी नहीं हुआ करता। (3) तीसरा सिद्धान्त जो निरूपित किया गया है वह यह है कि जब फल का मिलना मनुष्य के अधिकार से बाहर है और दैवाधीन है तो फल की आशा या इच्छा किए बिना ही कर्म रूप अपने जन्म-सिद्ध अधिकार को करणीय कर्तव्य समझकर करना चाहिए। फल की इच्छा से कर्म करना अनधिकार चेष्टा होती है; कर्म का कर्तव्य रूप नष्ट हो जाता है औश्र वह काम-कर्म बन जाते हैं; काम्य-कर्म वन्धनात्मक होते हैं तथा मोक्ष प्राप्ति में बाधकर होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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