गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 250

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 2
सांख्य-योग
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।।श्लोक 47 व 48 का भावार्थ।।

श्लोक 47 में यह कहकर कि त्रिगुणमयी वेदों की फल-श्रुतियों से अतीत होकर रज-तममयी भोग-ऐश्वर्य की कामना न कर फलाशा-विरहित अपना कर्तव्य कर्म करते रहना चाहिए; श्लोक 45 व 46 का स्पष्टीकरण किया है और कर्म-योग-मार्ग के चार मूलभूत सिद्धान्त प्रतिपादि किए हैं-

(1) पहले सिद्धान्त में यह बताया है कि कर्म करना प्राणिमात्र का व मनुष्यमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है क्योंकि अध्याय 3 श्लोक 10 व 15 के अनुसार सृष्टि और कर्म की उत्पत्ति साथ-साथ हुई है अतः सृष्टि और कर्म का सह-अस्तित्व है सृष्टि है तो कर्म है और कर्म है तो सृष्टि है एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव नहीं। अतः जीवमात्र की उत्पत्ति कर्म के साथ होने के कारण कर्मरूप जन्म-सिद्ध अधिकार को काम में लिया जा सकता है; काम में लेना उचित है; और प्रकृति-जन्य स्वाभाविक गुणों के अनुसार काम में लिया भी जाता है।

(2) दूसरा सिद्धान्त यह निरूपित किया गया है कि “कर्म-फल पर किसी का अधिकार नहीं होता।” कर्म-फल का मिलना या न मिलना; और यदि मिले भी तो अच्छा मिले, बुरा मिले या मिश्रित मिले; अदृष्ट के हाथ में रहता है। प्राप्ति या कर्म-फल पर अधिकार कभी नहीं हुआ करता।

(3) तीसरा सिद्धान्त जो निरूपित किया गया है वह यह है कि जब फल का मिलना मनुष्य के अधिकार से बाहर है और दैवाधीन है तो फल की आशा या इच्छा किए बिना ही कर्म रूप अपने जन्म-सिद्ध अधिकार को करणीय कर्तव्य समझकर करना चाहिए। फल की इच्छा से कर्म करना अनधिकार चेष्टा होती है; कर्म का कर्तव्य रूप नष्ट हो जाता है औश्र वह काम-कर्म बन जाते हैं; काम्य-कर्म वन्धनात्मक होते हैं तथा मोक्ष प्राप्ति में बाधकर होते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
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- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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