गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
सांख्य-योग
महाभारत काल तक वेदों में वर्णित यज्ञ-याग करने की भाषा को अलंकृत करके काम्य-रूप देने के लिए रोचक व आकर्षक बना दी गई थी तथा वेदों की सनातनी निःस्वार्थ “इदं न मम्” भावना के स्थान में भोग, विलास, वैभव, ऐश्वर्य, स्वर्ग प्राप्ति आदि की काम्य भावना ने स्थान ग्रहण कर लिया था। लोकसंग्रहकारी वेद-श्रुतियाँ फल श्रुतियाँ बन गई थीं। यह विवेचन श्लोक 42 से 44 में किया गया है। श्लोक 45 व 46 में तत्कालीन वैदिक काम्य-कर्मों के विषय में उपदेश है और सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, हानि-लाभ, राग-द्वेष आदि रज-तम गुणात्मक सांसारिक द्वन्द्वों में लिप्त न होकर सतोगुणी व आत्मवन्त बनने का उपदेश दिया है। आत्म-ज्ञान हो जाने के पश्चात् फल-श्रुति विषयक वेदों का ज्ञान गौण, हीन व निरर्थक प्रतीत होने लगता है। आत्म-ज्ञान को एक विशाल जलाशय की उपमा देकर इस प्रकार समझाया है कि जैसे चारों ओर से जलापूर्ण जलाशय मिल जाने पर पानी बिना परिश्रम किए सहज ही मिल जाता है और आयासक-जलाशय अर्थात् कूप आदि जिनसे परिश्रम करने पर पानी प्राप्त होता है गौण व निरर्थक हो जाते हैं वैसे ही आत्म-ज्ञानी के लिए फल-श्रुतियाँ तुच्छ जलाशयों के समान हीन व निरर्थक हो जाती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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