गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 241

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 2
सांख्य-योग
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(45)
त्रैगुण्यविषया वेदा
निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्दो नित्यसत्त्वस्थो
निर्योगक्षेम आत्मवान्।।

(45)
वेद विषय हैं त्रिगुणमयी[1] ही
बन अतः अर्जुन! त्रिगुणातीत ही।
नित्य-सत्त्व-स्थित[2]व निद्र्वन्द ही
बन निर्योग-क्षेम[3] आत्मवन्त ही।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सत्त्व-रज-तम गुणों से युक्त।
  2. निरन्तर सत्त्व गुण में स्थित रहनेवाला व सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, हानि-लाभ, राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों से रहित होकर।
  3. अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति की कामना करने वाला तथा प्राप्य की रक्षा की चिन्ता करने वाला न बनकर आत्मरत व आत्मतुष्ट ही बन। {अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति को “योग” कहते हैं, और प्राप्य वस्तु की रक्षा को “क्षेम” कहते हैं}

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अंतिम पृष्ठ 1142

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