गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय- 2
सांख्य-योग
सांख्य-योग
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सत्त्व-रज-तम गुणों से युक्त।
- ↑ निरन्तर सत्त्व गुण में स्थित रहनेवाला व सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, हानि-लाभ, राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों से रहित होकर।
- ↑ अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति की कामना करने वाला तथा प्राप्य की रक्षा की चिन्ता करने वाला न बनकर आत्मरत व आत्मतुष्ट ही बन। {अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति को “योग” कहते हैं, और प्राप्य वस्तु की रक्षा को “क्षेम” कहते हैं}
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