गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 234

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 2
सांख्य-योग
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॥श्लोक 38 का भावार्थ॥

किसी कर्म का अच्छा या बुरा होना कर्ता की बुद्धि व भावना पर निर्भर रहता है यदि भावना अच्छी व सत् है तो कर्म भी सत्-कर्म है किन्तु यदि भावना या उद्देश्य कुत्सित है तो कर्म भी कुत्सित-कर्म है और उसका फल भी अच्छा नहीं होता। स्वधर्म-रूप धर्म-युद्ध करने का जो उपदेश श्लोक 33 से 37 में दिया है उसी स्वधर्म-रूप कर्तव्य कर्म को करने की विधि श्लोक 38 में यह बताई है कि समभाव-बुद्धि से अर्थात् सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीत या हार को समान-रूप से सहन करने पर या मानने पर कर्म करने से या युद्ध करने से उनमें होने वाली हत्या का पाप नहीं लगता है। अतः स्वधर्म को ध्यान में रखकर और सम-भावबुद्धि को ग्रहण कर युद्ध करने का उपदेश अर्जुन को दिया है। सम-भाव-बुद्धि से युद्ध करना भगवान् श्रीकृष्ण की युद्ध-नीति है। इस नीति से युद्ध करना भी धर्म-युद्ध बन जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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