गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 202

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 2
सांख्य-योग
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पंचमहाभूत जो स्थूलावस्था में होते हैं उनकी सूक्ष्मावस्था ही “तन्मात्र” कहलाती हैं। इन तन्मात्र को शब्द-तन्मात्र, स्पर्श-तन्मात्र, रूप-तन्मात्र, रस-तन्मात्र, व गन्ध-तन्मात्र कहते हैं। यह तन्मात्राएँ ज्ञानेन्द्रियों के स्वाभाविक धर्म हैं, चक्षु रूप को अवश्य देखेंगी, श्रोत्रेन्द्रि[1] शब्द को सुनेगी, घ्राणेन्द्रिय[2] गन्ध को ग्रहण करेंगी, जिह्वा रस[3] का अनुभव करेगी, और त्वगिन्द्रिय[4] स्पर्श का शीतोष्ण का अनुभव करेगी। इस “मात्रास्पर्श” का नियन्त्रण नहीं हो सकता क्योंकि यह इन्द्रियों का स्वाभाविक धर्म है, इस स्पर्श को[5] सहन ही करना चाहिए। इसके प्रति तितिक्षा भाव की अपनाना चाहिए। भगवान कृष्ण का यह उपदेश है कि तितिक्षा भाव को ग्रहण करने से निष्काम कर्म करने के आत्म-धर्म की भी रक्षा होगी और इन्द्रियों का स्वाभाविक धर्म भी सुरक्षित रहेगा।

इन पंचमहाभूतों की तथा पंचतन्मात्राओं की उत्पत्ति सांख्य-शात्र में मूल प्रकृति से होना माना है किन्तु वेदान्त-शास्त्र में परमब्रह्म परमेश्वर से होना माना है। इस “मात्रास्पर्श” को ही अध्याय 5 श्लोक 21 व 22 में “बाह्य-स्पर्श” व “संस्पर्शजा-भोग” कहा है।

(2) अन्तरेन्द्रियाँ-

मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार यह चार अन्तरेन्द्रियाँ मानी गई हैं। ज्ञानेन्द्रियों को वाह्य-विषयों के गुणों की अनुभूति होने पर जो संस्कार या संवेदनाएँ जाग्रत होती हैं उन संवेदनाओं को वह इन्द्रियाँ “मन” तक पहुँचाती हैं अतः मन उन संवेदनाओं का ज्ञाता होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कान
  2. नाक
  3. स्वाद
  4. त्वचा
  5. अनुभूति को

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1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
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14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
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16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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