गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
सांख्य-योग
धर्मराज युधिष्ठिर केवल धर्माभिनिविष्ट थे धर्म-परायण रहने के कारण अर्जुन को उपदिष्ट “स्वधर्ममपि चावेक्ष्य” का लौकिक व व्यावहारिक अर्थ नहीं समझते थे इसी कारण वह धर्म-भीरू थे। इस धर्म-भीरुता के कारण ही यह जानते हुए भी, कि द्यूत के बहाने से दुर्योधन उनका सर्वस्व अपहरण करना चाहता है, उन्होंने दुर्योधन के जुआ खेलने के निमंत्रण से इन्कार करना अधर्म या धर्म विरुद्ध समझा। इसका परिणाम यही हुआ कि द्रौपदी का भरी सभा में अपमान किया गया, समस्त राज्य व सर्वस्व से हाथ धोना पड़ा, तेरह वर्ष पर्यन्त वनोवास के घोर कष्ट सहन करने पड़े। इसी प्रकार युद्ध की विषम वेला में अर्जुन का युद्ध से निर्वेद होना व्यावहारिक धर्म के प्रतिकूल था। अर्जुन का युद्ध से विमुख होना भी धर्म-भीरुता थी। उसने गुरुजन, आचार्य, मामा, काका, श्वसुर, पुत्रजन, पौत्रजन, सुहृदजन, बन्धु-बान्धवादि स्वजनों को, उनके आततायी होने पर भी, मारने में पाप समझा। यदि अर्जुन अपने युद्ध न करने के निश्चय पर ही दृढ़ रहता और युद्ध न करता तो जैसा उसने अपना विचार व्यक्त किया था कि- “श्रेयो भाक्तु भैक्ष्यमपीह लोके” [1] उसे अपने परिजन सहित राज्यलक्ष्मी खोकर भिक्षुक बनना पड़ता शरीर यात्रा या जीवन यात्रा करना कठिन हो जाता। यह तो पाण्डवों की धर्म-परायण धर्म-भीरुता लोक व्यवहार या व्यावहारिक-धर्म के प्रतिकूल थी। कौरव नीति पर दृष्टिपात करने से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि उनकी निरा अधर्म परायणता भी लोक-व्यवहार या व्यावहारिक-धर्म के प्रतिकूल थी। कौरवपक्ष के अधिनायक धृतराष्ट्र और दुर्योधन थे। इनकी राज्यलिप्सा, सत्ताधिकारलिप्सा, ऐश्वर्य व वैभवलिप्सा, स्वार्थपरायणता आदि ही इनका परमधर्म था इससे इतर वह किसी सत् धर्म को नहीं मानते थे। इस अधर्ममय पापवृत्ति के साधन के लिए दुर्योधन नीच से नीच कर्म करने में भी संकोच नहीं करता था। भीष्म, द्रोण, विदुर, कृपाचार्य आदि ने धर्मज्ञ होते हुए भी तथा दुर्योधन की पापवृत्ति के निन्दक व घोर विरोधी होने पर भी अपने जीवन निर्वाह रूपी स्वार्थ के लिए दुर्योधन की पाप-नीति का समर्थन किया और उसका पक्ष लेकर उसकी ओर से युद्ध कर उसके सहयोगी बने। परिणाम स्वरूप कौरवगण सहयोगियों सहित मारे गए और कौरव वंश का उन्मूलन हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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