गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
सांख्य-योग
इस उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि “धर्म” शब्द बड़ा ही व्यापक व विस्तृत है तथा इसका प्रयोग अनेकानेक अर्थों में, भावों में, परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न प्रकार से वह प्रथक्-प्रथक रूप में किया जाता है। एक स्थान व एक परिस्थिती में किसी व्यक्ति या समाज के लिए जो कर्म, कर्तव्य, आचरण, अथवा क्रिया-व्यापार कारणीय कर्तव्य या धर्म होता है वही आचरण या क्रिया-कलाप अन्य स्थान पर या भिन्न परिस्थिति में रहने वालों के लिए निषिद्धय वा अकरणीय होते हैं। धर्म क्या है? इस जटिलता को सरल करने के लिए तत्त्वदर्शियों ने तथा धर्मज्ञों ने “धर्म” को दो भागों में
(1) व्यावहारिक अर्थ में धर्म-व्यावहारिक उपयोग में “धर्म” से तात्पर्य सदाचार व करणीय कर्तव्य-कर्म से होता है। तत्कालीन समाज-व्यवस्थानुसार जो करणीय कर्म निरुपित किए जाते हैं और जो सर्वमान्य व प्रमाण स्वरूप होते हैं वह कर्म धर्म-संज्ञक होते हैं। अतः व्यावहारिक धर्म के अन्तर्गत चतुर्वर्ण धर्म, जाति-धर्म, कुल-धर्म, समाज-धर्म, पुरुष-धर्म, नारी-धर्म, मित्र-धर्म, प्रजा-धर्म, राज-धर्म इत्यादि समस्त धर्म आ जाते हैं। जो नियम व शिष्टाचार समाज धारणार्थ विशिष्ट जन-समुदाय प्रत्येक समाज की परिस्थितियों को तथा गुण व स्वभाव को देखकर निर्धारित करता है और जो सर्वमान्य व प्रचलित हो जाते हैं वही नियम व शिष्टाचार समाज विशेष के धार्मिक आचार माने जाते हैं। अतः व्यावहारिक अर्थ में “आचारः परमो धर्मः” अथवा “आचारः प्रभवो धर्मः” धर्म की व्याख्या की गई है। समाज धारणा के लिए मनुष्य के स्वाभाविक आचरण का प्रतिबन्धन ही धर्म कहा गया है। यदि स्वाभाविक आचरण अर्थात् इन्द्रियों द्वारा प्रेरित मनोवृत्तियों को सीमित, मर्यादित, व प्रतिबन्धित न किया जावे तो मनुष्य में और पशु में कोई भेद न रहे। मनुष्य की इन्द्रियाँ मनुष्य को पशु के समान ही आचरण करने को उसके ज्ञान व विवेक को आवृत करके प्रेरित व प्रोत्साहित करती रहती हैं किन्तु यदि वह अपने विवेक से इन्द्रियों की प्रेरणा को तिरस्कृत करके अन्तःकरण के निर्देशानुसार आचरण करता है तो वह आचरण “धर्माचरण” कहलाता है, इसके विपरीत जो आचरण अन्तःकरण के विरुद्ध इन्द्रियों की प्रेरणानुसार किया जाता है वह “अधर्माचार” कहलाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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