गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 180

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 2
सांख्य-योग
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(6)
न चैतद्विद्य: कतरन्नो गरीयों
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।

(6)
नहीं जानते इस बेला में
है करणीय हमें क्या श्रेष्ठ[1]
नहीं जानते हम यह भी हैं
हम जीतेंगे या कुरुश्रेष्ठ।।

विमल तथ्य किन्तु यही है-

“जीवित रहना जिन्हें मारकर
नहीं चाहते हम हैं कभी।
वो ही सुत धृतराष्ट्र यहाँ पर
आज सामने खड़े सभी।।”

“है करणीय हमें क्या श्रेष्ठ”

“हम जीतेंगे या कुरुश्रेष्ठ”- अर्जुन की धारणा यह थी कि यदि युद्ध हुआ तो उसमें जीत कौरवों की हो चाहे पाँडवों की हो लेकिन वह जीत होगी सर्वनाश होने के पश्चात्। अतः ऐसी विनाशकारी जीत हितकर तथा श्रेयस्कर नहीं होगी। दुर्योधन का यह संकल्प था कि चाहे सर्वनाश ही हो जावे लेकिन वह राजी से पाण्डवों को सुई की नोंक के बराबर भी भूमि नहीं देगा। ऐसी परिस्थिति में इस सर्वनाश को टालने का उपाय अर्जुन के ध्यान में केवल यही था कि राज्य के लोभ को त्यागकर बिना युद्ध किए कौरवों की विजय स्वीकार कर ली जावे। ऐसा करने से न तो नर-संहार होगा और न युद्ध पैदा होने वाले दुष्परिणाम ही। अतः बिना युद्ध किए ही कौरवों की विजय स्वीकार कर लेना श्रेयस्कर है इससे केवल पाँच पांडवों का ही अहित होगा किन्तु हित समस्त राष्ट्र का होगा। अर्जुन की यह धारणा “अधिकस्य अधिकं सुखम्” सिद्धान्त पर आधारित थी जिससे अभिभूत होकर ही उसने राज्य को त्यागकर भिक्षा से जीवन निर्वाह करना उत्तम समझा था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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