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गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
सांख्य-योग
“है करणीय हमें क्या श्रेष्ठ”“हम जीतेंगे या कुरुश्रेष्ठ”- अर्जुन की धारणा यह थी कि यदि युद्ध हुआ तो उसमें जीत कौरवों की हो चाहे पाँडवों की हो लेकिन वह जीत होगी सर्वनाश होने के पश्चात्। अतः ऐसी विनाशकारी जीत हितकर तथा श्रेयस्कर नहीं होगी। दुर्योधन का यह संकल्प था कि चाहे सर्वनाश ही हो जावे लेकिन वह राजी से पाण्डवों को सुई की नोंक के बराबर भी भूमि नहीं देगा। ऐसी परिस्थिति में इस सर्वनाश को टालने का उपाय अर्जुन के ध्यान में केवल यही था कि राज्य के लोभ को त्यागकर बिना युद्ध किए कौरवों की विजय स्वीकार कर ली जावे। ऐसा करने से न तो नर-संहार होगा और न युद्ध पैदा होने वाले दुष्परिणाम ही। अतः बिना युद्ध किए ही कौरवों की विजय स्वीकार कर लेना श्रेयस्कर है इससे केवल पाँच पांडवों का ही अहित होगा किन्तु हित समस्त राष्ट्र का होगा। अर्जुन की यह धारणा “अधिकस्य अधिकं सुखम्” सिद्धान्त पर आधारित थी जिससे अभिभूत होकर ही उसने राज्य को त्यागकर भिक्षा से जीवन निर्वाह करना उत्तम समझा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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