गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 176

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 2
सांख्य-योग
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इसी कारण से हमने अनार्य-जुष्टं, क्लैव्यं, हृदय-दौर्बल्यं आदि शब्दों को देखकर तथा अध्याय 6 श्लोक 5 के “उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्” में ‘अवसाद’ शब्द को देखकर “कश्मल” का अर्थ “युद्ध-निर्वेद” किया है। यह युद्ध-निर्वेद, स्वजन, बान्धवों के प्रति मोह, गुरुजन, आचार्य के प्रति आदर, श्रद्धा, सुहृद मित्रगण के प्रति प्रेम, राष्ट्र-रखा भाव, समाज-रक्षा भाव, शुद्ध आर्यरक्त रक्षा भाव, नारी-सतीत्व संरक्षण भाव, आदि अनेकानेक भावनाओं के कारण हो सकता है। प्रथम अध्याय के अन्त में ही लिखा है कि-

“इति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्जुन विषाद योगी नाम प्रथमोऽध्यायः”।।1।।

इससे स्पष्ट है कि अर्जुन को बन्धु-बान्धवों, गुरुजन, आचार्य, मित्र, सुहृदों को देखकर विषाद हुआ और विषाद के कारण मोह नहीं हो सकता कश्मल (युद्ध से निर्वेद) ही हो सकता है। इस विचार से मोह विषाद का कारण है और विषाद कश्मल का कारण है जिससे युद्ध निर्वेद होना या ग्लानि होना है अतः कश्मल और युद्ध-निर्वेद का कार्य-कारण सम्बन्ध है। और यह युद्ध-निर्वेद रूपी कार्य किसी भी कारण रूप कश्मल से होना सम्भव हो सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
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- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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