गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
पूर्वाभास
युद्ध के प्रति अर्जुन की इस विमनस्कता को दूर कर उसे क्षात्रधर्म में प्रवृत्त करने के लिए जो कर्म-योग व साम्य-बुद्धि-योग का तथा स्थित-प्रज्ञ होने का उपदेश भगवान् श्रीकृष्ण ने दिया है वही उपदेश अध्याय 2 का प्रतिपाद्य विषय है जो श्लोक 11 से 72 तक वर्णन किया गया है जिसका सारांश निम्न प्रकार है- (1) श्लोक 11 से 30 तक (क) आत्मा औरपंचभूतात्मक स्थूल पिण्ड-शरीर का परस्पर सम्बन्ध तथा (ख) आत्मा के अव्यक्त स्वरूप का वर्णन करके आत्मा को नित्य अविनाशी तथा स्थूल शरीर को अनित्य व नाशवान बताया है। श्लोक 14 व 15 में यह समझाया है कि सुख-दुःख की सम्वेदनाएँ मात्र स्पर्श से होती हैं इनको स्थित-प्रज्ञ हो साम्य भाव से सहन करना चाहिए। (2) श्लोक 31 से 38 तक चातुर्यवर्ण व्यवस्था के आधार पर युद्ध करना एक क्षत्रिय का स्वधर्मरूप कर्तव्य कर्म बताया है। (3) श्लोक 40 से 50 में “कर्म” की अखण्डता बताई है, एक बार कर्म का प्राम्भ हो जाने पर उसका बीजारोपण हो जाता है और फिर वह बीज अंकुरित होता ही रहता है। नित्य, नैमित्तिक, अनिवार्य तथा अपरिहार्य कर्म करने ही पड़ते हैं, कर्म-हीन व अकर्मण्य होकर बैठ जाना किसी भी शास्त्र में या निष्ठा में नहीं कहा गया है, कर्म करना मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है किन्तु फल पर अधिकार नहीं है। (4) श्लोक 52 व 53 में यह उपदिष्ट किया गया है कि युद्ध काम्य-भावना से नहीं बल्कि फलाशा-विरहित बुद्धि से करना चाहिए।[1] (5) श्लोक 54 से 72 तक सम-भाव-बुद्धि, स्थिति-प्रज्ञ व समाधिस्थ का वर्णन कर “ब्राह्मी स्थिति” की व्याख्या की है कि ब्राह्म स्थिति क्या होती है व किसे कहते हैं। इस प्रकार अध्याय 2 में “मैं और तू” का भेद, आत्मा और पिण्ड शरीर का भेद, जीवन-मरण का भेद, व्यवस्थित व अव्यवस्थित बुद्धि का भेद, स्थित-प्रज्ञ, सम-भाव-बुद्धि, कर्म-कौशल आदि के भेद व अर्थ समझाकर आत्म-ज्ञान का उपदेश दिया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वैदिक यज्ञ कर्मों का विवेचन अध्याय 3 श्लोक 9-16 में, व अध्याय 4 श्लोक 23-33 में किया है।
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