गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
(अर्जुन विषाद-योग)
आततायीआततायी की व्याख्या इस प्रकार की गई हैः- “अग्निदौ गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः। इस परिभाषा के अनुसार वह व्यक्ति जो दूसरों के प्राण लेने के लिए स्वभाव से सदा उत्सुक रहता है तथा इसका प्रयास किया करता है, वो आततायी होता है। आततायी छः प्रकार के माने गए हैं। यथा- (1) आग लगाने वाला, (2) विष देने वाला, (3) हत्या करने वाला, (4) धन लूटने वाला, (5) स्त्री का अपहरण करने वाला, तथा (6) खेत या भूमि का अपहरण करने वाला। इस प्रकार अनिष्ट करने वाला आततायी होता है अनिष्ट चाहे कैसा भी या किसी भी प्रकार का क्यों न हो। अर्जुन का यह कहना शास्त्र, मनु आज्ञा व नीति के विरुद्ध था। आततायी के विषय में मनु आज्ञा यह है- “गुरु वा बालवध्वौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतं। अतः आततायी कोई भी हो चाहे वह गुरु हो, बालक हो, वृद्ध हो, ब्राह्मण हो या कोई विख्यात, पूज्य या मान्य व्यक्ति ही क्यों न हो, उसे मार डालने में पाप या अपराध नहीं लगता। अतः जब मनु की यह आज्ञा है और शास्त्र विधान भी ऐसा ही है कि आततायी की हत्या का न तो पाप ही लगता है और न वह अपराध ही माना जाता है फिर भी अर्जुन ने इस विधान के विपरीत आततायी कौरवों को मारने में पाप क्यों समझा? यह विचारणीय प्रश्न हो जाता है। अर्जुन का युद्ध से विमनस्क होने का कारण मोह हो जाना बताया जाता है। यदि इस निर्वेद का कारण बन्धु-बान्धव, नाती-रिश्तेदारों के प्रति मोह हो जाना भी मान लिया जावे तो भी इसके आगे के श्लोक 38 से 45 के सन्दर्भ से स्पष्ट है कि अर्जुन के विचार व दृष्टि में राष्ट्रीय, राजनीतिक, सामाजिक तथा व्यवहारिक दृष्टिकोण भी था जिसमें भारत का भविष्य अन्तर्हित था और जिसके कारण अर्जुन राज्य-लाभरूपी स्वार्थ को भी त्यागने को तैयार था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज