गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 156

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 1
(अर्जुन विषाद-योग)
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(36)
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः
का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्
हत्वैतानाततायिनः।।

(36)
मारकर इन धृतराष्ट्र पुत्रों को
प्रिय हे जनार्दन! होगा क्या ही।
मारकर इन आततायी[1]-जनों को
लगेगा हमें केवल पाप ही[2]।।

आततायी

आततायी की व्याख्या इस प्रकार की गई हैः-

{ आततेन विस्तीर्णेन शस्त्रादिना अयितुं शीलमस्य इति आततायी }

“अग्निदौ गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः।
क्षेत्रदाराहश्चैव षडते आततायिनः।।”(आपटे कोष)

इस परिभाषा के अनुसार वह व्यक्ति जो दूसरों के प्राण लेने के लिए स्वभाव से सदा उत्सुक रहता है तथा इसका प्रयास किया करता है, वो आततायी होता है। आततायी छः प्रकार के माने गए हैं। यथा- (1) आग लगाने वाला, (2) विष देने वाला, (3) हत्या करने वाला, (4) धन लूटने वाला, (5) स्त्री का अपहरण करने वाला, तथा (6) खेत या भूमि का अपहरण करने वाला। इस प्रकार अनिष्ट करने वाला आततायी होता है अनिष्ट चाहे कैसा भी या किसी भी प्रकार का क्यों न हो।

(2) “मारकर इन आततायी जनों को, लगेगा हमें केवल पाप ही”।

अर्जुन का यह कहना शास्त्र, मनु आज्ञा व नीति के विरुद्ध था। आततायी के विषय में मनु आज्ञा यह है-

“गुरु वा बालवध्वौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतं।
आततायिनमायातं हन्यादेवाविचारयन्।।”

अतः आततायी कोई भी हो चाहे वह गुरु हो, बालक हो, वृद्ध हो, ब्राह्मण हो या कोई विख्यात, पूज्य या मान्य व्यक्ति ही क्यों न हो, उसे मार डालने में पाप या अपराध नहीं लगता। अतः जब मनु की यह आज्ञा है और शास्त्र विधान भी ऐसा ही है कि आततायी की हत्या का न तो पाप ही लगता है और न वह अपराध ही माना जाता है फिर भी अर्जुन ने इस विधान के विपरीत आततायी कौरवों को मारने में पाप क्यों समझा? यह विचारणीय प्रश्न हो जाता है।

अर्जुन का युद्ध से विमनस्क होने का कारण मोह हो जाना बताया जाता है। यदि इस निर्वेद का कारण बन्धु-बान्धव, नाती-रिश्तेदारों के प्रति मोह हो जाना भी मान लिया जावे तो भी इसके आगे के श्लोक 38 से 45 के सन्दर्भ से स्पष्ट है कि अर्जुन के विचार व दृष्टि में राष्ट्रीय, राजनीतिक, सामाजिक तथा व्यवहारिक दृष्टिकोण भी था जिसमें भारत का भविष्य अन्तर्हित था और जिसके कारण अर्जुन राज्य-लाभरूपी स्वार्थ को भी त्यागने को तैयार था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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