गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 144

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय- 1
(अर्जुन विषाद-योग)
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(20-21)
अथ व्यवस्थितान्दृष्टा
धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते
धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।20।।

हृषीकेशं तदा वाक्यम्
इदमाह महीपते।
सेनयोरुभयोर्मध्ये
रथं स्थापय मेऽच्युत।।21।।

(20-21)
युद्ध से पहले व्यवस्थित रूप में
देखकर उन धृतराष्ट्र-पुत्रों को।
कपिध्वज[1]अर्जुन युद्ध की बेला में
रणोत्सुक भाव में उठा धनुष को।।20।।

बोला फिर वह हृषीकेश[2]को
हो रणोत्सुक राजन्! मन में।
“ले चलो अच्युत[3] मेरे रथ को
सेना उभयेव मध्य में।।”21।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कपि (हनुमान जी) की ध्वजा है जिसके रथ पर।
  2. “हषीक” कहते हैं इन्द्रियों को; और “ईश” कहते हैं स्वामी को; अतः “हृषीकेष” का अर्थ हुआ इन्द्रियों का स्वामी।
  3. भगवान् कृष्ण का विशेषण।

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1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
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5. कर्म-संन्यास योग 474
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अंतिम पृष्ठ 1142

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