गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय- 1
(अर्जुन विषाद-योग)
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(20-21)
अथ व्यवस्थितान्दृष्टा
धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते
धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।20।।
हृषीकेशं तदा वाक्यम्
इदमाह महीपते।
सेनयोरुभयोर्मध्ये
रथं स्थापय मेऽच्युत।।21।।
(20-21)
युद्ध से पहले व्यवस्थित रूप में
देखकर उन धृतराष्ट्र-पुत्रों को।
कपिध्वज[1]अर्जुन युद्ध की बेला में
रणोत्सुक भाव में उठा धनुष को।।20।।
बोला फिर वह हृषीकेश[2]को
हो रणोत्सुक राजन्! मन में।
“ले चलो अच्युत[3] मेरे रथ को
सेना उभयेव मध्य में।।”21।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कपि (हनुमान जी) की ध्वजा है जिसके रथ पर।
- ↑ “हषीक” कहते हैं इन्द्रियों को; और “ईश” कहते हैं स्वामी को; अतः “हृषीकेष” का अर्थ हुआ इन्द्रियों का स्वामी।
- ↑ भगवान् कृष्ण का विशेषण।
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