गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1068

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
Prev.png

अव्यभिचारिणी या सात्त्विक धृतिः-

सहिष्णुता, सहनशीलता अथवा धारणा-शक्ति को धृति कहते हैं। धृति-शील व सहिष्णु होने के लिए मन का निग्रह करना होता है और मन का निग्रह[1] करने के लिए व्यवसायात्मक-बुद्धि तथा कार्याऽकार्य बोधनीय-बुद्धि की सहायता लेनी पड़ती है। सृष्टि के बाह्य-विषयों से इन्द्रियों का सम्पर्क होने पर मन में भावनाएं उत्पन्न होती हैं; उन भावनाओं से प्रेरित तया प्रभावित होकर चेष्टा अथवा कर्म करने की इच्छा होती है और मन में नाना प्रकार के भिन्न-भिन्न भाव, भावनाएँ, वासनाएँ व इच्छाओं की तरंगें उठती हैं। उस समय बुद्धि का काम इस बात का निर्णय करना होता है कि अमुक कार्य या चेष्टा करने योग्य है या नहीं; इस विकल्प की व्यवस्था करने तक बुद्धि मन को निग्रहीत रखती है चाहे यह समय कम हो या ज्यादा हो। किन्तु उतने समय तक के लिए मन बुद्धि के द्वारा निग्रहीत व नियन्त्रित रहता है। इस व्यवसायात्मक बुद्धि को स्थिर, अचल, सम, शुद्ध, निर्मल व स्वतन्त्र रखने के लिए तथा इन्द्रियों और इन्द्रिय-विषयों से अप्रभावित रखने के लिए साम्य-योग, ज्ञान-योग तथा आत्म-संयम-योग का अभ्यास व आचरण करना कहा गया है जिससे मनुष्य स्थित-प्रज्ञ, समदर्शी, आत्मनि, आत्मरत व आत्मतुष्ट होता है। इस प्रकार मन व बुद्धि तद्रूप व एक हो जाते हैं और “मन” बुद्धि के द्वारा वशीकृत हो जाता हैः- [2] में वर्णन है।

मन निसर्गतः चंचल व प्रमाथी होता है इस कारण अध्याय. 6 श्लोक 33 व 34 में अर्जुन के कहने के अनुसार मन का निग्रह करके घृति-शील होना या साम्य-योग की साधना करना दुष्कर होता है। अर्जुन की इस शंका का निराकरण ही भगवान कृष्ण ने यहाँ अध्याय 18 के श्लोक 33 से 35 में किया है और यह समझाया है कि बुद्धि-योग, साम्य-योग व आत्म-संयम-योग द्वारा मन का निग्रह करके मन को स्थिर, अचल व अडिग बनाना चाहिए; मन की इस स्थिरता को अथवा स्थित-प्रज्ञता को ही “अव्यभिचारिणी-धृति” कहा गया है।[3]

इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि यतचित्त-बुद्धि को ही “अव्यभिचारिणी-धृति” कहा गया है और इस “यतचित्त-बुद्धि” को निर्वात-स्थान-स्थित-दीप से उपमा दी गई है[4] अतः स्थित-प्रज्ञ, सम-भाव-बुद्धि-युक्त समदर्शी, विधेयात्मा, इन्द्रिय- निग्राहक, संयमी, जितेन्द्रिय, त्रिगुणातीत, अनासक्त, फलेच्छा-रहित, दैवी-संपदाभिजात, सात्त्विक-कर्म, सात्त्विक-बुद्धि, सात्त्विक-ज्ञान, तप, दान आदि समस्त वाक्य व शब्द सात्त्विक-धृति के द्योतक हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वश में
  2. अध्याय 6 श्लोक 19, 20, 24 से 26- अध्याय 14 श्लोक 24 व 25
  3. अध्याय 5 श्लोक 11;- अध्याय 6 श्लोक 4, 18, 19;- अध्याय 14 श्लोक 24
  4. अध्याय 6 श्लोक 19

संबंधित लेख

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः