गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दूसरा प्रकरण
तेजस्विनः सुखमसूनपि सत्यजन्ति सत्यव्रतव्यसनिनो न पनुः प्रतिज्ञाम्।। “तेजस्वी पुरुष आनन्द से अपनी जान भी दे देंगे। परन्तु वे अपनी प्रतिज्ञा का त्याग कभी नहीं करेंगे”[1]। इसी तरह श्रीरामचंद्रजी के एक-पत्नीव्रत के साथ उनका, एक बाण और एक वचन का व्रत भी प्रसिद्ध है, जैसा इस सुभाशित में कहा है। “द्विःशरं नाभिसंधते रामो द्विर्नाभिभाशते”; हरिश्चंद्र ने तो अपने स्वप्न में दिये हुए वचन को सत्य करने के लिये डोम की नीच सेवा भी की थी। इसके उलटा, वेद में यह वर्णन है कि इंद्रादि देवताओं ने वृत्रासुर के साथ जो प्रतिज्ञाएं की थीं उन्हे मेट दिया और उसको मार डाला। ऐसी ही कथा पुराणों में हिरण्यकशिपु की है। व्यवहार में भी कौल-करार ऐसे होते हैं कि जो न्यायालय में बेकायदा समझे जाते हैं या जिनके अनुसार चलना अनुचित माना जाता है। अर्जुन के विषय में ऐसी ही एक कथा महाभारत[2] में है। अर्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि जो कोई मुझ से कहेगा कि” तू अपना गांडीव धनुष किसी दूसरे को दे दे” उसका सिर मैं तुरंत ही काट डालूंगा। इसके बाद युद्ध में जब युधिष्ठिर कर्ण से पराजित हुआ तक उसने निराश होकर अर्जुन से कहा” तेरा गांडीव हमारे किस काम है तू उसे छोड़ दे।” यह सुन कर अर्जुन हाथ में तलवार ले युधिष्ठिर को मारने दौड़ा। उस समय भगवान श्रीकृष्ण वहीं थे। उन्होंने तत्त्व ज्ञान की दृष्टि से सत्य धर्म का मार्मिक विवेचन करके अर्जुन को यह उपदेश किया कि” तू मूढ़ है, तुझे अब तक सूक्ष्म-धर्म मालूम नहीं हुआ है, तुझे वृद्धजनों से इस विषय की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये, न वृद्धाः सेवितस्त्वया, तू ने वृद्धजनों की सेवा नहीं की है - यदि तू प्रतिज्ञा की रक्षा करना ही चाहता है तो तू युधिष्ठिर की निर्भर्त्सना कर, क्योंकि सभ्य जनों की निर्भर्त्सना मृत्यु ही के समान है।” इस प्रकार बोध करके उन्होंने अर्जुन को जेष्ठभ्रातृ वध के पाप से बचाया। इस समय भगवान श्रीकृष्ण ने जो सत्यानृत-विवेक अर्जुन को बताया है, उसी को आगे चल कर शांति पर्व के सत्यानृत नामक अध्याय में भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा है[3]। यह उपदेश व्यवहार में लोगों के ध्यान में रहना चाहिये। इसमें संदेह नहीं कि इन सूक्ष्म प्रसंगों को जानना बहुत कठिन काम है। देखिये, इस स्थान में सत्य की अपेक्षा भ्रातृ धर्म ही श्रेष्ठ माना गया है; और गीता में यह निश्चित किया गया है कि बंधु प्रेम की अपेक्षा क्षात्र धर्म प्रबल है। जब अहिंसा और सत्य के विषय में इतना वाद विवाद है तब आश्चर्य की बात नहीं कि, यही हाल नीति धर्म के तीसरे तत्त्व अर्थात अस्तेय का भी हो। यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि, न्यायपूर्वक प्राप्त की हुई किसी की संपति को चुरा ले जाने या लूट लेने की स्वतंत्रता दूसरों को मिल जाय तो द्रव्य का संचय करना बंद हो जायगा, समाज की रचना बिगड़ जायगी। चारो तरफ अव्यवस्था हो जायेगी और सभी की हानि होगी। परन्तु इस नियम के भी अपवाद हैं जब, दुर्भिक्ष के समय, मोल लेने, मजदूरी करने या भिक्षा मांगने से भी अनाज नहीं मिलता। तब ऐसी आपत्ति में, यदि कोई मनुष्य चोरी करके आत्म रक्षा करे, तो क्या वह पापी समझा जायगा? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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