गीता रहस्य -तिलक पृ. 33

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दूसरा प्रकरण

न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति न स्त्रीषु राजन विवाहकाले।
प्राणात्यये सर्वधनापहारे पंचानृतान्याहुरपातकानि ।।

अर्थात हंसी में, स्त्रियों के साथ, विवाह के समय, जब जान पर आ बने तत्त्व और संपति की रक्षा के लिये, झूठ बोलना पाप नहीं है” [1]। परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि स्त्रियों के साथ हमेशा झूठ ही बोलना चाहिये। जिस भाव से सिजविक साहब ने, छोटे लड़के, पागल और बीमार आदमी, के विषय में अपवाद कहा है वही भाव महाभारत के उक्त कथन का भी है। अंग्रेज ग्रंथकार पारलौकिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि की ओर कुछ भी ध्यान नहीं देते। उन लोगों ने तो खुल्लमखल्ला यहाँ तक प्रतिपादन किया है कि व्यापारियों का अपने लाभ के लिये झूठ बोलना अनुचित नहीं है किंतु यह बात हमारे शास्त्रकारों को सम्मत नहीं है। इन लोगों ने कुछ ऐसे ही मौकों पर झूठ बोलने की अनुमति दी है, जबकि केवल सत्य शब्दोचारण[2] और सर्व भूत हित अर्थात वास्तविक सत्य में विरोध हो जाता है और व्यवहार की दृष्टि से झूठ बोलना अपरिहार्य हो जाता है। इनकी राय है कि सत्य आदि नीति धर्म नित्य-अर्थात सब समय एक समान अबाधित है; अतएव यह अपरिहार्य झूठ बोलना भी थोड़ा सा पाप ही है और इसीलिये प्रायश्चित भी कहा गया है।

संभव है कि आजकल के आधिभौतिक पंडित इन प्रायश्चितों को निरर्थक हौवा कहेंगे; परन्तु जिनने ये प्रायश्चित कहे हैं और जिन लोगों के लिये ये कहे गये हैं वे दोनों ऐसा नहीं समझते। वे तो उक्त सत्य-अपवाद को गौण ही मानते हैं। और इस विषय की कथाओं में भी, यही अर्थ प्रतिपादित किया गया है। देखिये युधिष्ठिर ने संकट के समय एक ही बार, दबी हुई आवाज से, “नरो वा कुंजरो वा” कहा था। इसका फल यह हुआ कि उसका रथ, जो पहले जमीन से चार अंगुल ऊपर चला करता था, अब और मामूली लोगों के रथों के समान धरती पर चलने लगा। और अंत में एक क्षण भर के लिये उसे नरक लोक में रहना पड़ा। [3]! दूसरा उदाहरण अर्जुन का लीजिये। अश्वमेधपर्व[4] में लिखा है कि यद्यपि अर्जुन ने भीष्म का वध क्षात्र धर्म के अनुसार किया था, तथापि उसने शिखंडी के पीछे छिप कर यह काम किया था। इसलिये उसको अपने पुत्र बभ्रुवाहन से पराजित होना पड़ा। इन सब बातों से यही प्रगट होता है कि विशेष प्रसंगों के लिये कहे गये उक्त अपवाद मुख्य या प्रमाण नहीं माने जा सकते। हमारे शास्त्रकारों के अंतिम और तात्विक सिद्धांत वही हैं जो महादेव ने पार्वती से कहा हैः-

आत्महेतोः परार्थे वा नर्महास्याश्रयातथा।
ये मृशा न वदन्तीह ते नराः स्वर्गगामिनः।।

“जो लोग, इस जगत में स्वार्थ के लिये, परार्थ के लिये या ठठ्ठे में भी, कभी झूठ नहीं बोलते, उन्हीं को स्वर्ग की प्राप्ति होती है” [5]। अपनी प्रतिज्ञा या वचन को पूरा करना सत्य ही में शामिल है। भगवान श्रीकृष्ण और भीष्म पितामह कहते हैं चाहे हिमालय पर्वत अपने स्थान से हट जाय, अथवा अग्नी शीतल हो जाय, परन्तु हमारा वचन टल नहीं सकता”[6]। भर्तृहरि ने भी सत्पुरुषों का वर्णन इस प्रकार किया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मभा. आ. 82.19; और शा. 109 तथा मनु 8.110
  2. अर्थात केवल वाचिक सत्य
  3. मभा. द्रोणा.161.57,58 तथा स्वर्गा. 3.15
  4. 81.10
  5. मभा. अनु. 144.16
  6. मभा. आ. 103 तथा उ. 81.48

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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