गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दूसरा प्रकरण
बौद्ध और ईसाई धर्मो में भी इन्हीं नियमों का वर्णन पाया जाता है। क्या इस बात की कभी कल्पना की जा सकती है कि, जो सत्य इस प्रकार स्वयं सिद्ध और चिर स्थायी है, उसके लिये भी कुछ अपवाद होंगे परन्तु दुष्ट जनों से भरे हुए इस जगत का व्यवहार बहुत कठिन है। कल्पना कीजिये कि, कुछ आदमी चोरों से पीछा किये जाने पर तुम्हारे सामने किसी स्थान में जा कर छिप रहे हैं। इसके बाद हाथ में तलवार लिये हुए चोर तुम्हारे पास आकर पूछने लगे वे आदमी कहाँ चले गये? ऐसी अवस्था में तु क्या कहोगे - क्या तुम सच बोलकर सब हाल कह दोगे, या उननिरपराधी मनुष्यों की रक्षा करोगे शास्त्र के अनुसार निरपराधी जीवों की हिंसा को रोकना, सत्य ही के समान महत्त्व का धर्म है। मनु कहते है" नापृष्टः कस्यचिद्ब्रूयान्न” चान्यायेन पृच्छतः”[1]- जब तक कोई प्रश्न न करे तब तक किसी से बोलना न चाहिये और यदि कोई अन्याय से प्रश्न करे तो पूछने पर भी उत्तर नहीं देना चाहिये। यदि मालूम भी हो तो सिड़ी या पागल के समान कुछ हू हू करके बात देना चाहिये-” जान अपि हि मेधावी जडवलोक आचरेतू।” अच्छा, क्या हू हू कर देना और बात बना देना एक तरह से असत्य भाषण करना नहीं है। महाभारत[2] में कई स्थानों में कहा है, न व्याजेनचरेद्धर्म” धर्म से बहाना करके मन का समाधान नहीं कर लेना चाहिये; क्योंकि तुम धर्म को धोखा नहीं दे सकते, तुम खुद धोखा खा जाओगे। अच्छा; यदि हू हू करके कुछ बात बना लेने का भी समय न हो, तो क्या करना चाहिये। मान लीजिये, कोई चोर हाथ में तलवार लेकर छाती पर आ बैठा है और पूछ रहा है, कि तुम्हारा धन कहाँ है? यदि कुछ उतर न दोगे तो जान ही से हाथ धोना पडेगा। ऐसे समय पर क्या बोलना चाहिये। सब धर्म का रहस्य जानने वाले भगवान श्रीकृष्ण, ऐसे ही चोरों की कहानी का दृष्टांत दे कर कर्णपर्व[3] में, अर्जुन से और आगे शांतिपर्व के सत्यानृत अध्याय[4] में भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं - अकूजनेन चेन्मोक्षो नावकूजेत्कथंचन। अर्थात यह बात विचार पूर्वक निश्चित की गई है यदि बिना बोले मोक्ष या छुटकारा हो सके तो कुछ भी हो, बोलना नहीं चाहिये; और यदि बोलना आवश्यक हो अथवा न बोलने से दूसरों को कुछ संदेह होना संभव हो, तो उस समय सत्य के बदले असत्य बोलना ही अधिक प्रशस्त है।” इसका कारण यह है कि सत्य धर्म केवल शब्दोच्चार ही के[5] लिये नहीं है, अतएव जिस आचरण से सब लोगों का कल्याण हो वह आचरण, सिर्फ इसी कारण से निंदय नहीं माना जा सकता कि शब्दोच्चार अयथार्थ है। जिससे सभी की हानि हो, वह न तो सत्य ही और न अहिंसा ही। शांति पर्व[6] में, सनत कुमार के आधार पर नारद जी शुकजी से कहते है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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