गीता रहस्य -तिलक पृ. 29

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दूसरा प्रकरण

यदि क्षात्रधर्म नष्ट हो जाय तो प्रजा की रक्षा कैसे होगी सारांश यह है कि नीति के सामान्य नियमों से ही सदा काम नहीं चलता; नीतिशास्त्र के प्रधान नियम- अहिंसा- में भी कर्तव्य-अकर्तव्य का सूक्ष्म विचार करना ही पड़ता है। अहिंसा धर्म के साथ क्षमा, दया, शांति आदि गुण शास्त्रों में कहे गये हैं; परन्तु सब समय शांति से कैसे काम चल सकेगा? सदा शांत रहने वाले मनुष्यों के बाल-बच्चों को भी दुष्ट लोग हरण किये बिना नहीं रहेंगे। इसी कारण का प्रथम उल्लेख करके प्रल्हाद ने अपने नाती, राजा बलि से कहा हैः-

न श्रेयः सततं तेजो ने नित्यं श्रेयसी क्षमा।
तस्मान्नित्यं क्षमा तात पंडितैरपवादिता।।

सदैव क्षमा करना अथवा क्रोध करना श्रेयस्कर नहीं होता। इसीलिये, हे तात! पंडितों ने क्षमा के लिये कुछ अपवाद भी कहे हैं[1]। इसके बाद कुछ मौकों का वर्णन किया गया है जो क्षमा के लिये उचित है; तथापि प्रह्लाद ने इस बात का उल्लेख नहीं किया कि इन मौकों को पहचानने का तत्त्व या नियम क्या है। यदि इन मौकों को पहचाने बिना, सिर्फ अपवादों का ही कोई उपयोग करे, तो वह दुराचरण समझा जायेगा; इसलिये यह जानना अत्यंत आवश्यक और महत्त्व का है कि इन मौकों को पहचानने का नियम क्या है। दूसरा तत्त्व "सत्य" है, जो सब देशो और धर्म में भली-भाँति माना जाता और प्रमाण समझा जाता है। सत्य का वर्णन कहाँ तक किया जावे? वेद में सत्य की महिमा के विषय में कहा है कि सारी सृष्टि की उत्पति के पहले 'ऋत' और 'सत्य' उत्पन्न हुए; और सत्य ही से आकाश, पृथ्वी, वायु आदि पंचमहाभूत स्थिर हैं।- "ऋतंत्र सत्यं चाभीद्धातपसोअध्यजायत"[2], "सत्येनोतभिता भूमिः"[3]। "सत्य" शब्द का धात्वर्थ भी यही हैं- 'रहने वाला' अर्थात जिसका कभी अभाव न हो' अथवा 'त्रिकाल अबाधित'। इसीलिये सत्य के विषय में कहा गया है कि 'सत्य के सिवा और धर्म नहीं है।'. कि 'नास्ति सत्यात्परो धर्मः[4] और यह भी लिखा है किः-

अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलना धृतम्।
अश्वमेघसहस्रादि सत्यमेव विशिश्यते।।

"हजार अश्वमेघ और सत्य की तुलना की जाय तो सत्य ही अधिक होगा"[5]। यह वर्णन सामान्य सत्य के विषय में हुआ। सत्य के विषय में मनुजी एक विशेष बात और कहते हैं[6]:-

वाच्यर्था नियताः सर्वे वाड़मूला वाग्विनिः सृताः।
तां तु यः स्तेनयेद्वाचं स सर्वस्तेयकृन्नरः।।

"मनुष्यों के सब व्यवहार वाणी से हुआ करते हैं। एक के विचार दूसरे को बताने के लिये शब्द के समान अन्य साधन नहीं हैं। वही सब व्यवहारों का आश्रय-स्थान और वाणी का मूल सोता है। जो मनुष्‍य उसको मलिन कर ड़ालता है, अर्थात जो वाणी की प्रतारणा करता है, वह सब पूंजी ही की चोरी करता है" इसलिये मनुने कहा है कि 'सत्यपूतां 'वदेद्वाचं'[7]- जो सत्य से पवित्र किया गया हो, वही बोला जाय। और धर्मों से सत्य ही को पहला स्थान देने के लिये उपनिषद में भी कहा है 'सत्यं वद। धर्म चर'[8]। जब बाणों की शय्या पर पड़े भीष्म पितामह शांति और अनुशासन पर्वों में, युधिष्ठिर को सब उपदेश दे चुके; तब प्राण छोड़ने के पहले" सत्येषु यतितव्यं "वः सत्यंहि परमं बलं" इस वचन को सब धर्मों का सार समझकर उन्होंने सत्य ही के अनुसार व्यवहार करने के लिये सब लोगों को उपदेश किया है[9]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मभा. वन. 28.6.8
  2. ऋ. 10.160.1
  3. ऋ. 10.85.1
  4. शा. 162.24
  5. आ. 74.102
  6. 4.256
  7. मनु. 6.46
  8. तै. 1.11.1
  9. मभा. अनु. 167.50

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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