गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
जिस प्रकार आधिभौतिकशास्त्रों में वे अनुभव त्याज्य माने जाते हैं कि जो प्रत्यक्ष के विरुद्ध हों; उसी प्रकार वेदान्त-शास्त्र में युक्तियों की अपेक्षा उपर्युक्त स्वानुभव की अर्थात् आत्म-प्रतीति की योग्यता ही अधिक मानी जाती है। जो युक्ति इस अनुभव के अनुकूल हो उसे वेदान्ती अवश्य मानते हैं। श्रीमान् शंकराचार्य ने अपने वेदान्त-सूत्रों के भाष्य में यही सिद्धान्त लिखा है। अध्यात्म-शास्त्र का अभ्यास करने वालों को इस पर हमेशा ध्यान रखना चाहिये- अचिन्तयाः खलु ये भावा न तांस्तर्केण साधयेत् । प्रकृतिभ्यः परं यत्तु तदचिन्त्यस्य लक्षणम् ।। “जो पद्रार्थ इन्द्रियातीत है और इसीलिये जिनका चिन्तन नहीं किया जा सकता, उनका निर्णय केवल तर्क या अनुमान से ही नहीं कर लेना चाहिये; सारी सृष्टि की मूल प्रकृति से भी परे जो पदार्थ है वह इस प्रकार अचिन्त्य है”- यह एक पुराना श्लोक है जो महाभारत [1] में पाया जाता है; और जो श्री शंकराचार्य के वेदान्तभाष्य में भी ‘साधयेत्’ के स्थान पर ‘योजयेत्’ के पाठ-भेद से पाया जाता है [2]। मुंडक और कठोपनिषद में भी लिखा है, कि आत्मज्ञान केवल तर्क ही से नहीं प्राप्त हो सकता [3]। अध्यात्मशास्त्र में उपनिषद-ग्रन्थों का विशेष महत्त्व भी इसीलिये है। मन को एकाग्र करने के उपायों के विषय में प्राचीन काल में हमारे हिन्दुस्तान में बहुत चर्चा हो चुकी है और अन्त में इस विषय पर ( पातञ्जल ) योगशास्त्र नामक एक स्वतंत्र शास्त्र ही निर्मित हो गया है। जो बड़े-बड़े ऋषि इस योगशास्त्र में अत्यंत प्रवीण थे, तथा जिनके मन स्वभाव ही से अन्यंत पवित्र और विशाल थे; उन महात्माओं ने मन को अन्तर्मुख करके आत्मा के स्वरूप के विषय में जो अनुभव प्राप्त किया-अथवा, आत्मा के स्वरूप के विषय में उनकी शुद्ध और शान्त बुद्धि में जो स्फूर्ति हुई-उसी का वर्णन उन्होंने उपनिषद-ग्रन्थों में किया है। इसलिये किसी भी अध्यात्म तत्त्व का निर्णय करने में, इन श्रुतिग्रन्थों में कहे गये अनुभविक ज्ञान का सहारा लेने के अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नहीं है[4]। मनुष्य केवल अपनी बुद्धि की तीव्रता से उक्त आत्म-प्रतीति की पोषक भिन्न भिन्न युक्तियाँ बतला सकेगा; परन्तु इससे उस मूल प्रतीति की प्रामाणिकता में रत्ती भर भी न्यूनाधिकता नहीं हो सकती। भगवद्गीता की गणना स्मृति ग्रन्थों में की जाती है सही; परन्तु पहले प्रकरण के आरंभ ही में हम कह चुके हैं, कि इस विषय में गीता की योग्यता उपनिषदों की बराबरी की मानी जाती है। अतएव इस प्रकरण में अब आगे चल कर पहले सिर्फ यह बतलाया जायेगा, कि प्रकृति के परे जो अचिन्त्य पदार्थ है उसके विषय में गीता और उपनिषदों में कौन-कौन से सिद्धान्त किये गये हैं; और उनके कारणों का अर्थात् शास्त्र-रीति से उनकी उपपत्ति का विचार पीछे किया जायेगा। सांख्य-वादियों का द्वैत-प्रकृति और पुरुष-भगवद्गीता को मान्य नहीं है। भगवद्गीता के अध्यात्म-ज्ञान का और वेदान्तशास्त्र का भी पहला सिद्धान्त यह है, कि प्रकृति और पुरुष से भी परे एक सर्वव्यापक, अव्यक्त और अमृत तत्त्व है जो चर-अचर सृष्टि का मूल है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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