गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
सांख्यों की प्रकृति यद्यपि अव्यक्त है तथापि वह त्रिगुणात्मक अर्थात् सगुण है। परन्तु प्रकृति और पुरुष का विचार करते समय भगवद्गीता के आठवें अध्याय के बीसवें श्लोक में[1]कहा है, कि जो सगुण है वह नाशवान् है इसलिये इस अव्यक्त और सगुण प्रकृति का भी नाश हो जाने पर अन्त में जो कुछ अव्यक्त शेष रह जाता है, वही सारी सृष्टि का सच्चा और नित्य तत्त्व है। और आगे पन्द्रहवें अध्याय में[2]में क्षर और अक्षर, व्यक्त और अव्यक्त- इस भाँति सांख्यशास्त्र के अनुसार दो तत्त्व बतला कर यह वर्णन किया है:- उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परामत्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ।। अर्थात्, जो इन दोनों से भी भिन्न है वही उत्तम पुरुष है, उसी को परमात्मा कहते हैं, वही अव्यय और सर्वशक्तिमान है, और वही तीनों लोको में व्याप्त हो कर उनकी रक्षा करता है। यह पुरुष क्षर और अक्षर अर्थात् व्यक्त और अव्यक्त, इन दोनों से भी परे है, इसलिये इसे ‘पुरुषोतम्’ कहा है [3]। महाभारत में भी भृगु ऋषि ने भरद्वाज से ‘परमात्मा’ शब्द की व्याख्या बतलाते हुए कहा हैः- आत्मा क्षेत्रज्ञ इत्युक्तः संयुक्तः प्राकृतैर्गुणै।। तैरवे तु विनिर्मुक्तः परमात्मेत्युदाहृतः ।। अर्थात् ‘‘जब आत्मा प्रकृति में या शरीर में बद्ध रहता है तब उसे क्षेत्रज्ञ या जीवात्मा कहते हैं; वही, प्राकृत गुणों से यानि प्रकृति या शरीर के गुणों से, मुक्त होने पर, ‘परमात्मा’ कहलाता है” [4]। सम्भव है कि ‘परमात्मा’ की उपर्युक्त दो व्याख्याएँ दो भिन्न-भिन्न जान पड़ें, परन्तु वस्तुतः वे भिन्न-भिन्न हैं नहीं। क्षर-अक्षर सृष्टि और जीव ( अथवा सांख्यशास्त्र के अनुसार अव्यक्त प्रकृति और पुरुष ) इन दोनों से भी परे एक परमात्मा है इसलिये कभी कहा जाता है कि वह जीव के या जीवात्मा के [5] परे है-एवं एक ही परमात्मा की ऐसी द्विविध व्याख्याएँ कहने में, वस्तुतः कोई भिन्नता नहीं हो जाती। इसी अभिप्राय को मन में रख कर कालिदास ने भी कुमारसम्भव में परमेश्वर का वर्णन इस प्रकार किया है- ‘‘पुरुष के लाभ के लिये उद्युत होने वाली प्रकृति भी तू ही है और स्वयं उदासीन रह कर उस प्रकृति का द्रष्टा भी तू ही है"[6]। इसी भाँति गीता में भगवान् कहते हैं कि ‘‘मम योनिर्महदब्रह्म” यह प्रकृति मेरी योनि या मेरा एक स्वरूप है[7] और जीव या आत्मा भी मेरा ही अंश है[8]। सातवें अध्याय में भी कहा है- भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टघा।। अर्थात् ‘‘पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार-इस तरह आठ प्रकार की मेरी प्रकृति है; और इसके सिवा[9]सारे संसार का धारण जिसने किया वह जीव भी मेरी ही दूसरी प्रकृति है‘‘[10]। महाभारत के शान्तिपर्व में सांख्यों के पच्चीस तत्त्वों का कई स्थलों पर विवेचन है; परन्तु वहीं यह भी कह दिया गया है, कि इन पच्चीस तत्त्वों के परे एक छब्बीसवाँ ( षड्विंश ) परम तत्त्व है, जिसे पहचाने बिना मनुष्य ‘बुद्ध’ नहीं हो सकता [11]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस प्रकरण के आरम्भ में ही यह श्लोक दिया गया है
- ↑ 15. 17
- ↑ गी. 15. 8
- ↑ मभा. शां. 187. 24
- ↑ पुरुष के
- ↑ कुमा. 2. 13
- ↑ 14 . 3
- ↑ 15. 7
- ↑ अपरेयमितस्तवन्यां
- ↑ गी. 7. 4, 5
- ↑ शां. 308
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