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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
सबके लिए आशायत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । तू जो करे, जो खाये और जो हवन में होमे, जो दान दे, जो तप करे, वह सब मुझे अर्पण करके करना। समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय: । मैं सब प्राणियों में समभाव से रहता हूँ मुझे न कोई अप्रिय है और न प्रिय है। जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं और वे मुझमें हैं मैं भी उनमें हूँ। अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । यदि भारी दुराचारी भी अनन्य भाव से मुझे भजे तो उसकी गणना भी साधुओं में ही करनी चाहिये, क्योंकि अब उसका संकल्प अच्छा है। क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छार्न्ति निगच्छति । वह तुरन्त धर्मात्मा हो जाता है और निरंतर शांति पाता है। तू निश्चय जान कि मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता। जाति-भेद और स्त्री-पुरुष भेद संबंधी बाधाओं के विषय में विशेष उल्लेख हैः |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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