भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 60

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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सबके लिए आशा

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥27॥[1]

तू जो करे, जो खाये और जो हवन में होमे, जो दान दे, जो तप करे, वह सब मुझे अर्पण करके करना।

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय: ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥29॥[2]

मैं सब प्राणियों में समभाव से रहता हूँ मुझे न कोई अप्रिय है और न प्रिय है। जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं और वे मुझमें हैं मैं भी उनमें हूँ।

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव से मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स: ॥30॥[3]

यदि भारी दुराचारी भी अनन्य भाव से मुझे भजे तो उसकी गणना भी साधुओं में ही करनी चाहिये, क्योंकि अब उसका संकल्प अच्छा है।

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छार्न्ति निगच्छति ।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति ॥31॥[4]

वह तुरन्त धर्मात्मा हो जाता है और निरंतर शांति पाता है। तू निश्चय जान कि मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता।

जाति-भेद और स्त्री-पुरुष भेद संबंधी बाधाओं के विषय में विशेष उल्लेख हैः

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 9-27
  2. दोहा नं0 9-29
  3. दोहा नं0 9-30
  4. दोहा नं0 9-31

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