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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
मनोनिग्रह का अभ्यासइन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते । भटकती हुई इन्द्रियों के पीछे दोड़ने वाला मन मनुष्य की बुद्धि को अपने साथ खींच ले जाता है, जैसे तूफान समुद्र में जहाज को खींच ले जाता है। अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष: । यद्यपि मनुष्य पाप करना नहीं चाहता, फिर भी वह बलात्कार के वशीभूत हुआ-सा किसी प्रेरणा से पाप करता है? काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव: । वह काम है, क्रोध है। वह रजोगुण से उत्पन्न होता है। उसका पेट ही नहीं भरता। वह महापापी है। उसे इस लोक में अपना शत्रु समझो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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