दया एक दैवीय गुण है, जिस पर सभी धर्मों की रूपरेखा स्थिर है। दया के बिना कोई धर्म, धर्म नहीं रहता। परम भक्त तुलसीदास जी ने इसी तथ्य को व्यक्त करते हुए लिखा है-
या धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोड़िए जब लगि घट में प्रान॥
- वस्तुतः दया ही अपने आप में सबसे बड़ा धर्म है जिसका आचरण करने से मनुष्य का आत्म विकास होता है। समस्त हिंसा, द्वेष, वैर विरोध की भीषण लपटें दया का संस्पर्श पाकर शांत हो जाती हैं।
- दया परमात्मा का निजी गुण है। इसीलिए भक्त, संतजन भावना को दयासिन्धु कहते हैं।
- परमात्मा का यह दिव्य गुण जब सज्जनों के माध्यम से धरती पर अमृत बनकर बरसता है तो इससे सभी का भला होता है।
- लोक विजेताओं से भी बड़ा है दया का राजमुकुट। और इसकी शक्ति, जिससे हिंसक भी अहिंसक, और दुश्मन भी मित्र बन जाते हैं।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दया, धर्म का मूल (हिन्दी) अखण्ड ज्योति। अभिगमन तिथि: 6 मार्च, 2016।
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