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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:
सप्तदश: सन्दर्भ:
17. गीतम्
तवेदं पश्यन्त्या: प्रसरदनुरागं बहिरिव। अनुवाद- हे शठ! आज प्रिय व्रजांगना के चरणों के अलक्तक रस में रञ्जित आपका अरुण द्युति से युक्त हृदय आपके हृदयस्थित प्रबल अनुराग को बाहर प्रकट कर रहा है, जिसे देखकर आपका मेरा चिर-प्रसिद्ध प्रणय विच्छेदित हो रहा है। इससे मेरे चित्त में शोक की अपेक्षा लज्जा ही अधिक उद्भूत हो रही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- हे कितव (धूर्त्त) प्रियापादालक्तच्छुरितं (प्रियाया: तस्या: नायिकाया: पादालक्तेन चरणालक्तक-रसेन च्छुरितं व्याप्तं) [सुतरां] अरुणद्योति (अरुणं द्योतयतीति अरुणकान्ति) (अतएव) बहि: प्रसरदनुरागमिव (प्रसरन् प्रवृद्धिं गच्छन् अनुराग: यस्मात् तथाभूतमिव) [तव अनुरागो हृदयं भित्त्वा बहिर्विनिर्गत इव इति भावार्थ: तव हृदयं पश्यन्त्या: तवागमन प्रतीक्षमाणाया: मम अद्य त्वदालोक: (तव दर्शनं) प्रख्यात- प्रणयभरभंगेन (प्रख्यातस्य प्रसिद्धस्य प्रणयस्य य: भर: आतिशय्यं तस्य भ स्तेन हेतुना) शोकादपि (त्वद्वियोगदु:खादपि) किमपि (अनिर्वचनीयां जीवन-मरणयो: सन्देहापादिकां) लज्जां जनयति ॥1॥
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