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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:
सप्तदश: सन्दर्भ:
17. गीतम्
पद्यानुवाद बालबोधिनी- अब खण्डिता होने पर भी राधिका प्रौढ़त्व का आलम्बन करके श्रीकृष्ण पर आक्षेप करती हुई कहती है हे कितव! हे कपटी! तुम्हारा अवलोकन न करने पर तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा करते-करते मेरे सुविख्यात प्रणय का अब विच्छेद होने जा रहा है। तुम्हारा विच्छेदजनित दु:ख भी मुझे अनिर्वचनीय जैसा ही हो रहा है, कैसे कहूँ, जीवन-मरण का प्रश्न-सा लग गया है, कैसा संकट उपस्थित हुआ है, न जी पा रही हूँ, न मर पा रही हूँ। हे धूर्त! तुम्हें इस दशा में देखकर मुझे शोक भी उतना नहीं होता, जितनी कि लज्जा अनुभूत होती है। आपने जिस कामिनी के साथ रमण किया, उसके चरणों को अपने वक्ष:स्थल पर धारण किया, उसके पैरों की महावर से आपका वक्ष:स्थल राग-रञ्जित हो गया है। इस अरुणोदय काल में सन्ध्याकालीन अरुण-द्युति को देखकर ऐसा लग रहा है कि जो अनुराग आपने अपने हृदय में वहन किया था, वह आज बाहर प्रकट हो गया है। जहाँ आप कौस्तुभमणि धारण किया करते थे, वहाँ उस प्रेयसी उपभोग चिह्नों को देखकर मैं लज्जा से गढ़ी जा रही हूँ। जिस अनन्य प्रणय के अपार गर्व से मैं अमर्यादित रूप से आह्लादित हुआ करती थी, आपने अपने इस गर्हित आचरण से उस प्रेम का सूत्र ही तोड़ दिया, उसका उपभोग करके आपको लज्जा भी नहीं आती। धन्य हो कृष्ण! चले जाओ! हे छलिया! मैंने तुमसे ही क्यों प्रीति की? प्रस्तुत श्लोक में शिखरिणी छन्द है। अग्रिम श्लोक में श्रीकृष्ण ने विचार किया इतना प्रयत्न करके भी श्रीराधा के अत्यन्त प्रगाढ़ मान का निर्बन्ध दूर नहीं हो रहा है। अत: अब बंशी दूती की सहायता लेनी पड़ेगी। दूसरा कोई उपाय नहीं सूझ रहा है, बंशी-ध्वनि से राधिका का मान अवश्य ही दूर होगा ऐसा विचारकर कवि जयदेव बंशीध्वनि के द्वारा आशीर्वाद का विस्तार कर रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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