गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 342

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:

सप्तदश: सन्दर्भ:

17. गीतम्

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पद्यानुवाद
जयदेव कथित रति-वंचित खंडित युवती जनका
विलाप है, छू लेता जो अन्तर भावुक मनका॥

बालबोधिनी- यहाँ कवि श्रीजयदेव ने विद्वानों अथवा देवताओं को सम्बोधित करते हुए कहा है- हे विद्वानों! अभिलषणीय रति से वञ्चित खण्डिता युवती के विलाप को सुनो, यह विलाप अमृत से भी अधिक मधुर है। श्रीकृष्ण के द्वारा उपेक्षिता श्रीराधा रति-क्रीड़ा से वञ्चित हुई हैं, अत: अपने प्रियतम की विरह-वेदना में जो वह विलाप कर रही हैं, उस सुधा का रसास्वादन देवलोक में कदापि संभव नहीं है। देवलोक में सर्वाधिक सुमधुर वस्तु अमृत है, पर श्रीराधा के विलाप की तुलना में वह अमृत नगण्य है, इसे तो मनुष्य-तन से इस भौम जगत में ही प्राप्त किया जा सकता है। अत: जो विद्वान अमृत-प्राप्ति के लिए, सुरत की उपलब्धि के लिए लालायित रहते हैं, उन्हें इस अतुलनीय भौम-सुधा का पान अवश्य ही करना चाहिए।

प्रस्तुत प्रबन्ध की नायिका श्रीराधा खण्डिता है, जिसका लक्षण है-

निद्रा-कषाय-मुकुलीकृत-ताम्रनेत्रों
नारी-नखव्रणविशेष-विचित्रतांग : ।
यस्या: कुतोऽपि पतिरेति गृहं प्रभाते
सा खण्डेति कथिताकविभि: पुराणै:

अर्थात निशा जागरण के कारण रात में जिसकी निद्रा पूरी न हो सकी, वह लाल नेत्रों वाला, अन्य रमणी के नख-क्षतों के चिह्नों से विशेष विचित्र अंगों वाला, किसी नायिका का पति (प्रियतम) कहीं से प्रात:काल जब गृह में प्रवेश करता है, उस नायिका को कवियों ने खण्डिता कहा है।

इस गीतगोविन्द काव्य के सत्रहवें प्रबन्ध का नाम 'लक्ष्मीपति-रत्नावली' है। इसमें मेघराग है, विप्रलम्भ नाम का श्रृंगार और करुण रस है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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