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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:
सप्तदश: सन्दर्भ:
17. गीतम्
पद्यानुवाद बालबोधिनी- यहाँ कवि श्रीजयदेव ने विद्वानों अथवा देवताओं को सम्बोधित करते हुए कहा है- हे विद्वानों! अभिलषणीय रति से वञ्चित खण्डिता युवती के विलाप को सुनो, यह विलाप अमृत से भी अधिक मधुर है। श्रीकृष्ण के द्वारा उपेक्षिता श्रीराधा रति-क्रीड़ा से वञ्चित हुई हैं, अत: अपने प्रियतम की विरह-वेदना में जो वह विलाप कर रही हैं, उस सुधा का रसास्वादन देवलोक में कदापि संभव नहीं है। देवलोक में सर्वाधिक सुमधुर वस्तु अमृत है, पर श्रीराधा के विलाप की तुलना में वह अमृत नगण्य है, इसे तो मनुष्य-तन से इस भौम जगत में ही प्राप्त किया जा सकता है। अत: जो विद्वान अमृत-प्राप्ति के लिए, सुरत की उपलब्धि के लिए लालायित रहते हैं, उन्हें इस अतुलनीय भौम-सुधा का पान अवश्य ही करना चाहिए। प्रस्तुत प्रबन्ध की नायिका श्रीराधा खण्डिता है, जिसका लक्षण है- निद्रा-कषाय-मुकुलीकृत-ताम्रनेत्रों अर्थात निशा जागरण के कारण रात में जिसकी निद्रा पूरी न हो सकी, वह लाल नेत्रों वाला, अन्य रमणी के नख-क्षतों के चिह्नों से विशेष विचित्र अंगों वाला, किसी नायिका का पति (प्रियतम) कहीं से प्रात:काल जब गृह में प्रवेश करता है, उस नायिका को कवियों ने खण्डिता कहा है। इस गीतगोविन्द काव्य के सत्रहवें प्रबन्ध का नाम 'लक्ष्मीपति-रत्नावली' है। इसमें मेघराग है, विप्रलम्भ नाम का श्रृंगार और करुण रस है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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