गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 320

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

अथ षोड़ष: सन्दर्भ:

16. गीतम्

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बाधां विधेहि मलयानिल! पञ्चबाण!
प्राणान्गृहाण न गृहं पुनराश्रयिष्ये।
किं ते कृतान्तभगिनि! क्षमया तरंगे-
रंगानि सिञ्च मम शाम्यतु देहदाह: ॥3॥[1]

अनुवाद- हे मलयानिल! तुम बाधाओं का विधान करो! हे पञ्चबाण! तुम मेरे प्राणों का हरण करो! हे यमुने! तुम यम की बहन हो, तुम क्यों मुझे क्षमा करोगी? तुम तरंगों के द्वारा मुझे अभिषिक्त कर देना, जिससे मेरे देह का सन्ताप सदा के लिए शान्त हो जाय।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अधुना विरहोत्तप्तया प्राणोत्सर्ग: कृत एवाह]- हे मलयानिल, त्वं वाधां (मन:पीड़ां) विधेहि (जनय) [वामत्वेन वाधाविधान-सामर्थ्यादित्यर्थ:]; हे पञ्चबाण, (काम) प्राणान् गृहाण पञ्चबाण-धारित्वे पञ्चबाणग्रहणयोग्यत्वादित्यर्थ:]; हे कृतान्त-भगिनि (यम-सहोदरे यमुने) ते (तव) क्षमया किं? (क्षमां मा कुरु) यमानुजाया: क्षमा न युक्ता]; [तर्हि किं कर्त्तव्यम्? तरंगै: मम अंगानि सिञ्च देहदाहं (शरीरसन्ताप:); शाम्यतु (चिरं निवृत्तो भवतु); [एतेन दशमीं दशां विधेहीति ध्वन्यते]; [अहं] पुन: गृहं न आश्रयिष्ये तेन बिना गृहमपि सन्तापकमेव; ततो मरणमेव युक्तमित्यर्थ:] ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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