गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 319

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

अथ षोड़ष: सन्दर्भ:

16. गीतम्

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बालबोधिनी- प्रस्तुत श्लोक में श्रीराधा विरह के उन्माद में अपने चित्र को ही उपालम्भ देती हुई अपनी सखी से कहती है- हाय! मैं किसे दोष प्रदान करूँ? उस श्रीकृष्ण के स्मरण से जो मेरी प्रियसखियाँ मुझे श्रीकृष्ण के समीप जाने से मना किया करती थीं, आज उनका सुखमय संग भी मुझे वर्षों की शत्रुता जैसा प्रतीत होता है, शीत वायु मुझे ज्वाला के समान दग्ध करती है, चन्द्रमा हलाहल विष जैसा लगता है। फिर भी सखि! मेरा मन उस निर्दय निष्ठुर श्रीकृष्ण के प्रति अबाध गति से दौड़ता हुआ चला जा रहा है, मेरा अविवेकी मन ही मेरे दु:ख का कारण बन गया है। अहो! हिताहित विवेकरहिता कमलनयनाओं के लिए 'काम' ही नितान्त दुनिर्वार होकर उनके अशेष दु:ख का कारण बन जाता है। यह कामदेव अति निरंकुश है, सुन्दरियों के प्रति तो अति ही कठोर है एवं प्रतिकूल है, विरहियों के प्रति अति निरंकुश आचरण करता है।

इस श्लोक में हरिणी-वृत तथा विरोधालंकार है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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