गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 321

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

अथ षोड़ष: सन्दर्भ:

16. गीतम्

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बालबोधिनी- संप्रति विरह-ताप-तापिता श्रीराधा अपने प्राणों को त्यागने का संकल्प लेकर कहती हैं- हे मलयपवन! हे शीत समीरण! क्यों प्रतीक्षा कर रहे हो? मुझे खूब जमकर पीड़ा देना! हे पञ्चबाण! मेरे प्राणों का हरण कर लेना, अपने पाँच बाणों से तुम मेरे पाँचों प्राणों का अपहरण कर लेना इसीलिए तुम्हें पञ्चबाणों से उपहित किया जाता है। प्राणों का हरण करना ही तुम्हारा प्रयोजन है। ठीक ही तो है कामदेव सन्तप्त जनों को उत्तप्त करके गृह की ओर उन्मुख करा देता है। पर तुम मुझे कितना भी विवश कर लो, मेरे प्राण भले ही चले जायें, पर मैं घर कभी नहीं जाऊँगी, श्रीकृष्ण के चरणों का आश्रय लूँगी।

दोनों का उपालम्भ देकर काम से विदीर्ण होकर यमुना से कहती हैं- हे यमुने! तुम यमराज की बहन हो! मलयानिल एवं पञ्चबाण मुझे पीड़ित कर ही रहे हैं, कामदेव सम्भोगकारक हैं, पर वह तो विपरीत आचरणमय हो गया है, मलयानिल सुखकारक होकर मुझे विकल बना रहा है, उन दोनों के द्वारा प्राणों के ग्रहण कर लिये जाने पर तुम भाई यम को क्या उत्तर दोगी? इसलिए तुम मुझे क्षमा मत करो, तुम अपनी तरंगों से मेरे अंगो का सिंचन कर दो, मृत देह को अपने सलिल में समा लो, जिससे गतप्राण मेरे देह का दाह शान्त हो जाय। इस प्रकार श्रीराधा श्रीकृष्ण विरह में दसवीं दशा को प्राप्त होने लगीं।

प्रस्तुत श्लोक में वसन्ततिल का छन्द तथा अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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