गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 193

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:

अथ अष्टम: सन्दर्भ
8. गीतम्

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श्रीजयदेव-भणितमिदमधिकं यदि मनसा नटनीयम्।
हरि-विरहाकुल-वल्लव-युवति-सखी-वचनं पठनीयम्
सा विरहे तव दीना... ॥8॥[1]

अनुवाद- श्रीराधा की प्रिय सखी द्वारा कथित और श्रीजयदेव द्वारा विरचित यह अष्टपदी मानस-मन्दिर में अभिनय करने योग्य है और साथ ही हरि के विरह में व्याकुल श्रीराधा की सखी के वचन बार-बार पढ़ने योग्य है।

बालबोधिनी- प्रस्तुत श्लोक में गीतगोविन्दकार महाकवि श्रीजयदेव कहते हैं कि तरुणी श्रीराधा श्रीकृष्ण के विरह में व्याकुल हैं। सखी ने श्रीकृष्ण के पास श्रीराधा के प्रणय का निवेदन किया है। सखी द्वारा यह प्रणय-वचनावली मन के द्वारा अभिनय करणीय है। नाट्य में अभिनय प्रधान होता है, अत: 'नटनीयम्' का अर्थ हुआ अभिनीत किये जाने योग्य। 'नटनीय' का अर्थ रसनीय तथा आस्वादनीय भी है। नाट्यशास्त्र में भरतमुनि ने कहा है 'नटशब्दो रसे मुख्य:'। नट शब्द का मुख्यार्थ 'रस' है। 'श्रीजयदेवभणितमिदमधिकम्' इस वाक्यांश का अभिप्राय यह है कि श्रीजयदेव कवि की सम्पूर्ण उक्तियों में श्रीराधा की सखी की उक्ति ही सार-सर्वस्व है। यही वैष्णवों द्वारा भजनीय एवं आस्वादनीय है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- यदि मनसा नटनीयं [नर्त्तयितव्यं], [तर्हि] श्रीजयदेव-भणितम् (जयदेवोक्तम्) इदं हरिविरहाकुल-वल्लव-युवति-सखी-वचनम् (हरे: कृष्णस्य विरहेण आकुलाया: वल्लवयुवत्या: श्रीराधाया: सख्या: वचनं दूतीवाक्यम्) अधिकं (यथास्यात तथा) पठनीयम् ॥8॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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