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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:
अथ अष्टम: सन्दर्भ
8. गीतम्
ध्यान-लयेन पुर: परिकल्प्य भवन्तमतीव दुरापम्। अनुवाद- श्रीराधा तुम्हारे ध्यान में लीन होकर तुम्हें प्रत्यक्ष रूप में कल्पित करके विच्छेद यन्त्रणा से कभी विलाप करती हैं, कभी हर्ष प्रकाशित करती हैं तो कभी रोती हैं और कभी स्फूर्त्ति में आलिंगित हो सन्ताप का परित्याग करती हैं। पद्यानुवाद बालबोधिनी- सखी कह रही है- हे श्रीकृष्ण! अन्वेषण आदि के द्वारा श्रीराधाके लिए आप दुष्प्राप्य हो गये हैं, ध्यान में लीन होकर परिकल्पना करती हैं कि तुम उसके समीप ही हो। सम्मुख अनुभव होने पर चित्र बनाती है और चित्रलिखित तुम्हें देखने पर अपने निकट जानकर हँसने लगती हैं, मन में प्रसन्नता की हिलोरें तरंगायित होने लगती हैं, लेकिन आपके द्वारा आलिंगन न किये जाने पर उनका उन्मादित अट्टहास क्रन्दन में बदल जाता है, तुम्हारी कल्पित प्रतिमूर्त्ति के तिरोहित होने पर पुन: आलिंगित करने का उपक्रम करती हैं। सोचती है, यदि श्रीकृष्ण मुझे देखेंगे तो मेरे वशवर्ती हो जाएँगे इस आभास से अपनी छटपटाहट, छनछनाहट और सन्ताप का परित्याग करती हैं। रसिकप्रियाके अनुसार विलपति न होकर 'विलिखति' होना चाहिए। इसमें दीपक अलप्रार है। नायिकाका किलकिञ्चित् भाव है ॥7॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [पुनश्च अतिव्यग्रतया ध्यानलयेन भवन्तं साक्षादिव कृत्वा विलपतिज लहे कृष्ण] अतीव दुरापं (दुर्लभं) भवन्तं ध्यानलयेन (समाधियोगेन) पुर: परिकल्प्य (सम्भाव्य) विलपति; [त्वत्प्राप्त्यानन्दोच्छलिता सती] हसति; [पुनस्तवान्तर्द्धाने] विषीदति, रोदिति च; [पुन: स्फुरन्तं भवन्तमुद्दिश्य] चञ्चति (इतस्ततो धावति); [पुनश्च प्राप्तमिति सम्भाव्य आलिंगनादिना] तापं (मन:क्षोभं) मुञ्चति (त्यजति च) ॥7॥
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