विषय सूची
श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:
अथ पंचम संदर्भ
5. गीतम्
'भ्रामं भ्रमादपि नेहते'- यहाँ 'भ्राम' शब्द क्रोध का वाचक है। मेरा मन भूल से भी उनके प्रति क्रोध करना नहीं चाहता। उनकी 'परनायिकासक्ति', 'मदुपेक्षाकारिता' आदि दोषों को देखना नहीं चाहता, पूर्णरूपेण सन्तुष्ट ही रहता है, मैं क्या करूँ? इस श्लोक में श्रीराधा उत्कण्ठिता नायिका के रूप में प्रस्तुत है। उत्कण्ठिता का लक्षण है उत्का भवति सा यस्या वासके नागत: प्रिय:। अर्थात- जिस नायिका की शय्या पर नायक नहीं आता है, वह अपने प्रियतम के नहीं आने के कारण के विषय में व्याकुल होकर सोचती रहती है इसलिए उसे उत्कण्ठिता कहा जाता है। इस श्लोक में हरिणी नामक छन्द, यमक नामक शब्दालंकार, संशय एवं दीपक नामक अर्थालंकार एवं क्रियौचित्य है। प्रस्तुत श्लोक षष्ठ प्रबन्ध की पुष्पिका मात्र है ॥1॥ इति श्रीगीतगोविन्दे पंचम: सन्दर्भ:। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
सर्ग | नाम | पृष्ठ संख्या |