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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:
अथ पंचम संदर्भ
5. गीतम्
गणयति गुणग्रामं भ्रामं भ्रमादपि नेहते अनुवाद- "श्रीकृष्ण ने तुम्हें प्रत्याख्यान किया है, फिर भी तुम क्यों उनके प्रेम में व्याकुल हो रही हो" प्रियसखि के द्वारा इस प्रकार भर्त्सना किये जाने पर श्रीराधा कहने लगी सखि! श्रीकृष्ण मुझे परित्यागकर दूसरी-दूसरी युवतियों के साथ अतिशय अनुराग के साथ विहार कर रहे हैं, यह देखकर उनके प्रति अनुराग दिखाना व्यर्थ है, यह मैं जानती हूँ, फिर भी मैं क्या करूँ, उनके प्रति मेरी प्रबल आसक्ति किसी तरह से दूर नहीं होती है, मैं तो उनके गुणों की गणना ही करती रहती हूँ, अपने उत्कर्ष का अनुभव कर आनन्द में उन्मत्त हो जाती हूँ, भ्रम से भी मुझे उनके प्रति क्रोध नहीं होता, उनके दोषों को देखे बिना ही सन्तोष का अनुभव करती हूँ, उनकी बार-बार स्पृहा करती हूँ, सखि, वे मुझसे भुलाये नहीं जाते मैं क्या करूँ? पद्यानुवाद बालबोधिनी- षष्ठ प्रबन्ध के प्रारम्भ में अपनी रह:वार्त्ता की ओर अधिक विवृति करते हुए श्रीराधा जी कहती हैं सखि! अन्य गोपियों के साथ विहार करने वाले उन श्रीकृष्ण के प्रति मेरे मन ने दाक्षिण्य भाव को धारण किया है, मेरे न चाहने पर भी यह उनकी गुणावली का स्मरण करता रहता है, उनको प्राप्त करने की कामना करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [ननु श्रीकृष्णस्त्वां विहाय अन्याभिश्चेत्र विहरति तर्हिं तं किमिति स्मरसीति स्वाभिप्रायं वक्ष्यमाणं सखीं प्रत्याहज]- सखि, युवतिषु (गोपागंनासु) वलत्तृष्णे (वलन्ती प्रस्फुरन्ती तृष्णा रमणाकांक्षा यस्य तादृशे) [अतएव मां बिना विहारिणि (मां विहाय अन्यया सह रममाणे पीति भाव:) कृष्णे मम वामं (प्रतिकूलम् अवाध्यमिति यावत्) मन: पुनरपि कामं (अभिलाषं) करोति, गुणग्रामं (श्रीहरे: गुणसमूहं) गणयति (विचारयति); भ्रमादपि भ्रामं (विस्मरणं) न ईहते (चेष्टते न कथमपि विस्मरतीत्यर्थ:); परितोषं (तृप्तिं) [तत्स्मरणेन इति शेष:] वहति; [तथा] दोषं (अवज्ञजनितमपराधं) दूरत: मुञ्चति (परिहरति, नगणयतीत्यर्थ:); किं करोमि [नास्त्यन्या मे गतिरिति भाव:] ॥1॥
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