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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:
अथ षष्ठ सन्दर्भ
6. गीतम्
मालव गौड़ रागेण एक ताली तालेन च गीयते अनुवाद- मालव राग तथा एकताली ताल के द्वारा यह गीत गाया जाता है, इसकी गति द्रुत है। हे सखि! वह केशिमथन श्रीकृष्ण, जो मदन-सन्ताप का शान्तिविधान करने में कभी अनुदार नहीं होते और जिनका मन मेरे प्रति अतिशय अनुराग के कारण विमोहित हुआ है, उनके साथ मेरा अनंग विषयक मनोरथ कैसे सिद्ध होगा? इसी भावना से मैं व्याकुल हो रही हूँ। अब तुम उनके साथ मेरा मिलन सम्पादन करा दो। जो विहित पूर्व संकेतानुसार निशीथ में निभृत निकुञ्ज-गृह में आकर, मैं उनके लिए कैसी उत्कण्ठिता हूँ अथवा उनके अदर्शन से मुझमें कितनी तड़प है, इस कौतुक भाव के साथ निकुञ्जवन के गोपनतम स्थान में छिपकर देखने वाले, वे कब आयेंगे? ऐसी चिन्ता में निमग्ना जब थकित चकित नेत्रों से देखती थी, तब मेरी कातरता को देखकर श्रृंगार रसभरी हास्यसुधा से मुझको आनन्दित करने वाले उदार तथा केशी नामक दैत्य का वध करने वाले श्रीकृष्ण का मुझ-कामकेलि की इच्छा से परिपूर्ण अन्त:करण वाली तथा रति चेष्टाएँ करने वाली के साथ अनंग सम्बन्धीय मनोरथ सिद्ध कराओ ॥1॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- सखि, निभृत-निकुञ्ज-गृहं गतया (निर्ज्जननिकुञ्ज-गृहं प्रस्थितया) [मया सह] निशि (रात्रौ) [तदलाभात्र मम वैकल्यादि-दिदृक्षया] रहसि (एकान्ते) निलीय (आत्मानं संगोप्य) वसन्तं (तिष्ठन्तं) [केशिमथनम्.....]; [तथा] चकित-विलोकित-सकलदिशा (चकितं कृष्णं कुत्र निलीयते इति इति सशंक यथा तथा विलोकिता दृष्टा सकला दिक् यया तादृश्या) [मया सह] रति-रभस-भरेण (रतौ य: रभस: औत्सुक्यं तस्य भरेण आतिशय्येन) हसन्तं (मद्वैकल्यं समीक्ष्येतिशेष:) [केशिमथनम् ....]; [तथाच] मदन-मनोरथ-भावितया (मदनेन प्रेम्णा य: मनोरथ: अभिलाष: तेन भावितया युक्तया) [मया सह] सविकारम् (कामवशेन भावान्तरगतम्) उदार: (महान्तं मनोरथदातारमित्यर्थ:) केशिमथनं रमय (रतिं कारय) ॥1॥
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