श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
चतुर्थ अध्याय
अज्ञश्चाद्यधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोSस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥40॥
अज्ञ, श्रद्धाविहिन और संशययुक्त व्यक्ति विनाश को प्राप्त होता है। संशययुक्त व्यक्ति के लिए न तो यह लोक है, न ही पर लोक है और सुख भी नहीं है।।40।।
भावानुवाद- ज्ञान के अधिकारी के सम्बन्ध में बताने के पश्चात् उसके विपरीत अधिकारी के विषय में बता रहे हैं। ‘अज्ञ’ अर्थात् पशु के सदृश मूढ़ और ‘अश्रद्धधान’ अर्थात् शास्त्रों का ज्ञान होने पर भी विविध वादियों में परस्मर विरोध देखकर किसी भी सिद्धान्त पर विश्वास नहीं करने वाला। श्रद्धा रहने पर भी जो संशयात्मा हैं, उन्हें यह सन्देह होता है कि मेरा प्रयास सफल होगा या नहीं और इस सन्देह से वे आतंकित रहते हैं। पुनः ‘नायं’ इत्यादि के द्वारा तीनों में से उस सन्देहात्मा की विशेषरूप से निन्दा कर रहे हैं।।40।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- ज्ञानाधिकारी और उसके फल का वर्णन कर यहाँ इसके विरीत अज्ञान तथा इसके कुफल का वर्णनकर रहे हैं-अज्ञ, अश्रद्धावान और संश्यात्मा व्यक्तियों का विनाश होता है। श्रीधरस्वामीपाद के अनुसार ‘अज्ञ’ का अर्थ है-‘श्रीगुरुदेव के उपदिष्ट विषयों में अनभिज्ञ’ और श्रीबलदेव विद्याभूषण प्रभु के अनुसार है-‘पशुओं की भाँति शास्त्रज्ञानरहित’।
शास्त्र, गुरु और वैष्णवों की बातों में जिसे विश्वास नहीं है, उसे अश्रद्धालु कहा गया है।
हरि-गुरु-वैष्णव-इन तीनों के उपदेशों पर जिनको सर्वत्र सन्देह विद्यमान रहता है, उन्हें संशयात्मा कहा गया है। ऐसे सन्देहात्मा व्यक्ति अज्ञ तथा अश्रद्धालु से भी पतित होते हैं, इन्हें इहलोक अथवा परलोक-कहीं भी सुख-शान्ति की प्राप्ति नहीं होती है।।40।।
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