प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम-योगप्रेम की परिभाषा क्या है? परिभाषा परिभाषाएँ एक नहीं, अनेक हैं, पर वे सब हैं अधूरी ही। पूरी परिभाषा तो अब तक कहीं मिली नहीं- उलटा पलटी करहु निखिल जगकी सब भाषा। पूरी परिभाषा मिल ही कहाँ सकती है। वाण का भाषा का विषय तो प्रेम है नहीं। वह तो एक अनुभवगम्य वस्तु है। सहृदय सत्यनारायण ने कहा है कि प्रेम स्वाद अवर्णनीय है, गूंगे का सा गुड़ है- जानत सब कछु प्रेम स्वादु मुख बरनि न आवतु। ब्रह्म भी मन वाणी से परे है और प्रेम भी अनिर्वचनीय है। परमभागवत नारद ने अपने ‘भक्तिसूत्र’ में प्रेम की अनिर्वचनीयता का समर्थन किया है। लिखा है- अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम्। तो फिर ब्रह्म और प्रेम में अंतर ही क्या रहा? कौन कहता है कि इनमें अंतर है? अंतर का लेश भी नहीं है, एक ही वस्तु के दो नाम हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज