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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
भगवान श्रीकृष्ण किसी प्रकार से भी कोई लीला क्यों न करें; वह परम अद्भुत है, परम मनोहर है। उनका चलना भी, खेलना भी, खाना भी, सोना भी, सब मनोहर और उनकी जो गोपाल लीला है यह तो जैसी मनोरम और अद्भुत है वैसी और कोई लीला है ही नहीं। इस प्रकार शास्त्र वचनों से यह बात सिद्ध होती है कि भगवान की नाना मूर्तियों-मत्स्य, कूर्मादि, नृसिंह में महाशक्ति परिपूर्ण स्वरूपगत सम होने पर भी कृष्ण मूर्ति में परिपूर्णता का विकास है, इसलिये ‘श्रीकृष्णस्तु भगवान स्वयम्।’ इसमें ज्ञान-वैराग्य का भी पूर्ण प्रकाश है। भगवान की सर्वज्ञता, स्वप्रकाशिता और स्वप्रयोजनीयता को ज्ञान शक्ति कहते हैं। साधारणतः हम लोग ज्ञान का अर्थ समझते हैं कि किसी विषय वस्तु की जो चित्तवृत्ति हो जाय उसका नाम ज्ञान। किन्तु ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं यद् ब्रह्म ज्योतिः सनातनम्’[2] यह श्रुति है। कोई यह वस्तु विषय की चित्तवृत्ति नहीं है। जब वस्तु की सृष्टि ही नहीं हुई थी तब भी भगवान का स्वरूप भूत ज्ञान था। यह भगवान का स्वरूप था ही। इसलिये भगवान की जो सर्वज्ञता शक्ति है-ज्ञान-यह भगवान की सम्पत्ति है इसमें कोई सन्देह नहीं। किन्तु इसका विकास श्रीकृष्ण में जैसा था वैसा और कहीं नहीं हुआ; किसी भी लीला में। यह छः दिन के बच्चे थे। यशोदा मैया के प्रसवागार-सूति का घर में यह कोमल शैय्या पर सीधे सो रहे थे-उत्तान और माँ यशोदा देख-देखकर वात्सल्य रसास्वादन कर रही थी, मुग्ध हो रही थीं। इतने में पूतना आयी। पूतना के आते ही वह मुग्ध बाल कोचित अज्ञान की आड़ में उनका सुप्रकाश ज्ञान प्रकट हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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