रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 11

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


(1)
ब्रह्मादिजयसंरूढ़दर्पकन्दर्पदर्पहा।

जयति श्रीपतिर्गोपीरासमण्डलमण्डितः।।[1]

श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में पाँच अध्याय हैं 29 से 33 तक। इन पाँच अध्यायों के नाम हैं रास-पञ्चाध्यायी। इनमें भगवान की रास-लीला का प्रसंग है और ऐसा भागवत के विद्वान लोग मानते हैं कि सारे भागवत में जो भागवत शरीर है वह है दशम स्कन्ध और उसमें जो आत्मा है वह है रास-पञ्चाध्यायी। रासपञ्चाध्यायी को अगर भागवत में से निकाल दिया जाय तो भागवत आत्माविहीन रह जाती है ऐसा मानते हैं।

रासपञ्चाध्यायी में भगवान के जिस प्रेम-रस-तत्त्व का वर्णन है उसका सार, उसका जो परम तत्त्व है उसका सार बड़े उज्ज्वल रूप में प्रकाशित है। इसी को पंचप्राण भी कहते हैं। जैसे पंच प्राण होते हैं वैसे ही भागवत के पंचप्राण स्वरूप यह रासपन्चाध्यायी है। यह रासपञ्चाध्यायी है तो बड़े ऊँचे तत्त्व की चीज परन्तु इसमें वर्णन है श्रृंगारपरक। इसलिये भगवान की दिव्य लीला का भाव न समझकर केवल बाहरी दृष्टि से देखने पर इसमें केवल श्रृंगार रस की बात दिखाई देती है और मनुष्य को भ्रम हो जाता है। इसलिये शायद शुकदेवजी ने सबसे पहले रासपञ्चाध्यायी के श्लोक में ‘भगवान’ शब्द रखा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ब्रह्मादि लोकपालों को जीत लेने के कारण जो अत्यन्त अभिमानी हो गया था, उस कामदेव के दर्प को दलित करने वाले गोपियों के रासमण्डल के भूषणस्वरूप श्रीलक्ष्मीपति की जय हो।

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