रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 146

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

प्रेम-बन्धन

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नहीं चुका सकता मैं बदला, कर सकता न कभी ऋण-शोध।
बँध प्रेम-बन्धन, मैं करता स्वतंन्त्रता का कभी न बोध।।
सहज स्वतन्त्ररूप मैं रहता स्वयं-रचित सुखमय परतन्त्र।
नहीं छूटना कभी चाहता, नहीं चाहता बनूँ स्वतन्त्र।।
मधुर प्रेम-परवशता मेरी प्रभुतापर प्रभुत्व करती।
रस-स्वरूप मुझमें यह पल-पल मधुर नित्य नव रस भरती।।
भूल सभी सत्ता-भगवत्ता मैं रस-सागर बन जाता।
नयी-नयी रस-सरिताओं से भर मैं रससे सन जाता।।
यह मेरा रस-लुब्ध, नित्य रस-मत्त, सदा रस-पूर्ण स्वरूप।
ब्रह्म सच्चिदान्नद पूर्ण से नित्य विलक्षण, परम अनूप।।
अतः सिद्ध-मुनि, परमहंस-योगी-विज्ञानी-आत्माराम।
इसे जानने के प्रयत्न में रहते लगे सदा अविराम।।
किंतु न पाते इस सागर की गहराई का थाह कभी।
हार मान, ऊपर आ जाते परम सिद्ध वे लोग सभी।।
निर्मल प्रेम-बन्ध से जो मेरा रसरूप बाँध पाते।
वही विलक्षण इस स्वरूप को रसिक सुजान देख पाते।
वे फिर इसमें अवगाहन कर करते मधुमय रस का पान।
वे ही फिर मुझको देते मेरा अभिलषित मधुर रस-दान।।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पद-रत्नाकर, पद सं. 538

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