रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 230

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पाँचवाँ अध्याय

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यत्पादपंकजपरागनिषेवतृप्ता
योगप्रभावविधुताखिलकर्मबन्धाः।
स्वैरं चरन्ति मुनयोऽपि न नह्यमाना-
स्तस्येच्छयाऽऽत्तवपुषः कुत एव बन्धः।।35।।

जिनके चरण-कमलों की रज का सेवन करके भक्तजन पूर्णकाम हो जाते हैं, जिनके साथ मन का योग हो जाने के प्रभाव से योगी मुनिजनों के समस्त कर्मबन्धन कट जाते हैं, वे किसी भी विधि- निषेध को न मानकर स्वेच्छानुसार नियन्त्रण रहित स्वच्छन्द आचरण करते हुए भी बन्धन से सर्वथा मुक्त रहते हैं, वे ही साक्षात भगवान, जो कर्मबन्धन से पांचभौतिक देह को प्राप्त न होकर अपनी लीला से ही सच्चिदानन्दमय विग्रहरूप में प्रकट हुए हैं, उन कर्तु-अकर्तु-अन्यथा कर्तु समर्थ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान में किसी प्रकार के कर्मबन्धन की कल्पना ही कैसे हो सकती है?।।35।।

गोपीनां तत्पतीनां च सर्वेषामेव देहिनाम्।
योऽन्तश्चरति सोऽध्यक्षः क्रीडनेनेह देहभाक्।।36।।

जो भगवान गोपियों के उनके पतियों के तथा सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामी आत्मारूप से विहार करते हैं, वे सबके साक्षी परमपति परमेश्वर ही दिव्य चिन्मय देह धारण करके यहाँ लीला कर रहे हैं।।36।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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