रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 229

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पाँचवाँ अध्याय

Prev.png
ईश्वराणां वचः सत्यं तथैवाचरितं क्कचित्।
तेषां यत् स्ववचोयुक्तं बुद्धिमांस्तत्समाचरेत्।।32।।

इसलिये श्री शंकर के सदृश समर्थ देवताओं के वचनों का ही अधिकारानुसार यथार्थरूप से पालन करना चाहिये, उनके स्वच्छन्द आचरणों का नहीं। कहीं-कहीं उनके आचरणों का भी अनुकरण किया जा सकता है, परंतु बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि उनके उसी आचरण का अनुकरण करे, जो उनके उपदेश के सर्वथा अनुकूल हो।।32।।

कुशलाचरितेनैषामिह स्वार्थो न विद्यते।
विपर्ययेण वानर्थो निरहंकारिणां प्रभो।।33।।

राजा परीक्षित! इस संसार में ऐसे समर्थ ईश्वर सर्वथा अहंकारशून्य होते हैं। शुभ कर्म करने से उनका कोई स्वार्थसाधन-लाभ नहीं होता और उसके विपरीत लोक दृष्टि में अशुभ कर्म से उनकी कोई हानि नहीं होती। वे स्वार्थ या अनर्थ अर्थात लाभ-हानि और शुभ-अशुभ से ऊपर उठे होते हैं।।33।।

किमुताखिलसत्त्वानां तिर्यङ्मर्त्यदिवौकसाम्।
ईशितुश्चेशितव्यानां कुशलाकुशलान्वयः।।34।।

यह तो ईश्वरकोटि के समर्थ देवताओं तथा पुरुषों की बात है। भगवान श्रीकृष्ण तो पशु-पक्षी, कीट-पतंग, मनुष्य-देवता आदि समस्त चराचर जीवों के एकमात्र नियन्ता-शासक प्रभु, सर्वलोकमहेश्वर हैं। उनके साथ किसी लौकिक शुभ और अशुभ से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध हो ही कैसे सकता है।।34।।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः