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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
गोपियों का जो यह त्याग है; यह सर्वधर्मत्याग सबके लिये नहीं है। यह त्याग वही कर सकते हैं जो भगवत्प्रेम को प्राप्त हैं। वे भी जान बूझकर त्याग नहीं करते जैसे सूर्य का मध्याह्न का प्रकाश होने पर तैल दीप का त्याग अपने आप हो जाता है। उस समय तैल के दिये को कौन लिये घूमता है? जितने और धर्म हैं यह तैल के दिये के समान हैं और भगवत प्रेम सूर्य के प्रखर प्रकाश के समान है। भगवत प्रेम की जब उच्च स्थिति होती है तब यह होता है। यह वहाँ कहा है? ‘वेदान्पि संन्यस्यति, केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते।’[1] नारदजी ने कहा कि वेदमूलक जितनी धर्म की मर्यादायें हैं उन मर्यादाओं का वह सन्यस्यति-भली-भाँति त्याग चुकता है। वेद की कोई मर्यादा उस पर बन्धनरूप नहीं रहती है क्योंकि वह अखण्ड, केवलम् अविच्छिन्नम् अनुरागम लभते - केवल अखण्ड, विशुद्ध अनुराग को प्राप्त करता है। विशुद्धानुराग में रहता है? इसमें रहता है केवल प्रेम और केवल प्रेमास्पद। प्रेमी भी नहीं रहता। प्रेमी का हृदय भी भरा रहता है केवल प्रेम से और प्रेम का भाव होता है प्रेमास्पद का सुख सम्पादन। बस! जिसके शरीर से अपनी वासना, कामना, अहंता के बिना प्रेमास्पद का सुख बनता रहता हो उसका नाम है गोपी। अपने-आपको जो छोड़ चुकी, अपने-आपको जो भूल चुका, अपने अहंका जो विनाश कर चुका, उसका अहं केवल बना इसलिये कि उसका जो प्रेमास्पद है उसके सुख का सम्पादन होता रहे। वह अहं प्रेमास्पद का सुख-सम्पादन रूप है, अहं नहीं। इस प्रकार के हृदयवाली जो भी कोई है या जो भी उस प्रकार के हृदयवाला है उसका नाम-गोपी। किसी स्त्री का नाम गोपी नहीं है। इस प्रकार की जो गोपियाँ भगवान के सुख-सम्पादनरूप हृदय वाली थीं। जो भगवान के वंशी ध्वनि को सुनकर जाती हैं। वंशी ध्वनि सुनकर क्यों गयी? इसलिये कि उनका हृदय है भगवान का सुख सम्पादन स्वरूप और उनके हृदय में वंशी ध्वनि पहुँची कान के द्वारा कि ललिता आओ। गोपियों को सुनाई दिया अपना-अपना नाम मानो नाम ले-लेकर वंशी ध्वनि के द्वारा भगवान ने उन सबको बुलाया। जब ऐसा होता है तब उस समय किसी दूसरे की ओर ताकना कैसा होता है? भगवान का परम आवाहन हो गया। वहाँ भी रोकने वालों ने रोका। बड़ी सुन्दर बात वहाँ आती है कि रोका। लेकिन रुके कौन? जब हिमालय से नदी निकलती है तो उस धारा को कोई रोक सकता है क्या? जो रोकना चाहता है वह मिट जाता है। गोपियों को रोकना चाहा, परन्तु रुकी नहीं, रोक सकीं नहीं और जिसके चित्त में कुछ प्राकृतिक पुरातन संस्कार थे उनकी विचित्र दशा हुई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नारद भक्तिसूत्र/ 49
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