रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 167

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पहला अध्याय

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न चैवं विस्मय: कार्यो भवता भगवत्यजे।
योगेश्वरेश्र्वरे कृष्णे यत एतद्‌ विमुच्यते।।16।।

अतएव तुम - सरीखे भागवत को जन्मादिरहित, योगेश्वरों के भी परम ईश्वर, ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य के परम निकेतन भगवान नन्दनन्दन श्रीकृष्ण के सम्बन्ध से केवल परम प्रियतम मानने वाली गोपियों की गुणमय देह से मुक्ति कैसे हो गयी - इस रूप में तनिक भी आश्चर्य नहीं करना चाहिये। गोपियों की तो बात ही क्या, श्रीकृष्ण के सम्बन्ध से तो स्थावर आदि समस्त जगत संसार-बन्धन से मुक्त हो सकता है।।16।।

ता दृष्ट्‌वान्तिकमायाता भगवान्‌ व्रजयोषित:।
अवदद्‌ वदतां श्रेष्ठो वाच:पेशैर्विमोहयन्‌।।17।।

अस्तु, अब आगे क्या हुआ, यह सुनो! वक्ताओं में सर्वश्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण ने जब देखा कि व्रजसुन्दरियाँ मेरे अत्यन्त समीप आ गयी हैं, तब उन्होंने अपनी मनोहर वाक्चातुरी से उनको सर्वथा मोहित करते हुए कहा।।17।।

श्रीभगवानुवाच
स्वागतं वो महाभागा: प्रियं किं करवाणि व:।
व्रजस्यानामयं कच्चिद्‌ ब्रूतागमनकारणम्‌।।18।।

भगवान श्रीकृष्ण बोले - महाभाग्यवती गोपियों! तुम भले आयीं, तुम आज्ञा दो, तुम लोगों को प्रिय लगने वाला मैं कौन-सा कार्य करूँ? व्रज में सब कुशल-मंगल तो है न? इस समय तुम लोग यहाँ मेरे पास किस प्रयोजन से पधारीं - यह तो बताओ।।18।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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