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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पहला अध्याय
उक्तं पुरस्तादेतत्ते चैद्य: सिद्धिं यथा गत:। श्री शुकदेव जी ने कहा - परीक्षित! मैं तुमसे पहले ही[1] कह चुका हूँ कि चेदिराज शिशुपाल सभी इन्द्रियों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण से द्वेष रखने पर भी प्राकृत शरीर को त्यागकर अप्राकृत पार्षद देह रूप सिद्धि को प्राप्त हो गया था। फिर जो सम्पूर्ण प्रकृति और उसके गुणों से अतीत श्रीकृष्ण की प्रिया हैं और उनमें अनन्य प्रेम करती हैं, वे गोपियाँ उनको प्राप्त कर लें - इसमें कौन आश्चर्य की बात है।।13।। नृणां नि:श्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप। राजन! भगवान श्रीकृष्ण जन्म-मृत्यु आदि षडविकारों से रहित अविनाशी परब्रह्म हैं, वे अपरिच्छिन्न हैं, मायिक गुणों से अथवा गुण-गुणी-भाव से रहित हैं और अचिन्त्यानन्त अप्राकृत परम कल्याण रूप दिव्य गुणों के परम आश्रय तथा सम्पूर्ण गुणों का नियन्त्रण करने वाले हैं, वे तो जीवों के परम कल्याण के लिये ही आविर्भूत होते हैं।।14।। कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौहृदमेव च। इसलिये जो व्यक्ति किसी भी सम्बन्ध से अपने जीवन को उन सर्व-दोषहारी भगवान से जोड़ देते हैं, वह सम्बन्ध चाहे सदा काम का हो, क्रोध का हो, भय का हो अथवा स्नेह, एकात्मता या सौहार्द का हो, वे निश्चय ही भगवान में तन्मय हो जाते हैं।।15।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सातवें स्कन्ध में
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