रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 158

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-रहस्य

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यदि वह हठ ही हो कि श्रीकृष्ण का चरित्र मानवीय धारणाओं और आदर्शों के अनुकूल ही होना चाहिये तो इसमें भी कोई आपत्ति की बात नहीं है। श्रीकृष्ण की अवस्था उस समय दस वर्ष के लगभग थी, जैसा कि भागवत में स्पष्ट वर्णन मिलता है। गाँवों में रहने वाले बहुत-से दस वर्ष के बच्चे तो नंगे ही रहते हैं। उन्हें कामवृत्ति और स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध का कुछ ज्ञान ही नहीं रहता। लड़के-लड़की एक साथ खेलते हैं, नाचते हैं, गाते हैं, त्योहार मनाते हैं, गुडुई-गुडुए की शादी करते हैं, बारात ले जाते हैं और आपस में भोज-भात भी करते हैं। गाँव के बड़े-बूढ़े लोग बच्चों का यह मनोरंजन देखकर प्रसन्न ही होते हैं, उनके मन में किसी प्रकार का दुर्भाव नहीं आता। ऐसे बच्चों को युवती स्त्रियाँ भी बड़े प्रेम से देखती हैं, आदर करती हैं, नहलाती हैं, खिलाती हैं। यह तो साधारण बच्चों की बात है।

श्रीकृष्ण -जैसे असाधारण धी-शक्ति-सम्पन्न बालक, जिनके अनेकों सद्गुण बाल्यकाल में ही प्रकट हो चुके थे; जिनकी सम्मति, चातुर्य और शक्ति से बड़ी-बड़ी विपत्तियों से व्रजवासियों ने त्राण पाया था; उनके प्रति वहाँ की स्त्रियों, बालिकाओं और बालकों का कितना आदर रहा होगा- इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। उनके सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्य से आकृष्ट होकर गाँव की बालक-बालिकाएँ उनके साथ ही रहती थीं और श्रीकृष्ण भी अपनी मौलिक प्रतिभा से राग, ताल आदि नये-नये ढंग से उनका मनोरंजन करते थे और उन्हें शिक्षा देते थे। ऐसे ही मनोरंजन में से रासलीला भी एक थी, ऐसा समझना चाहिये। जो श्रीकृष्ण को केवल मनुष्य समझते हैं, उनकी दृष्टि में भी यह दोष की बात नहीं होनी चाहिये। वे उदारता और बुद्धिमानी के साथ भागवत में आये हुए ‘काम’, ‘रति’ आदि शब्दों का ठीक वैसा ही अर्थ समझें, जैसा कि उपनिषद् और गीता में इन शब्दों का अर्थ होता है। वास्तव में गोपियों के परम त्यागमय प्रेम का ही नामान्तर ‘काम’ है ‘प्रेमैव गोपरामाणां काम इत्यगमत् प्रथाम्।’ और भगवान श्रीकृष्ण का आत्मरमण अथवा उनकी दिव्य क्रीडा ही ‘रति’ है। ‘आत्मनि यो रममाणः’ ‘आत्मारामोऽप्यरीरमत्।’ इसीलिये इस प्रसंग में स्थान-स्थान पर उनके लिये विभु, परमेश्वर, लक्ष्मीपति, भगवान योगेश्वरेश्वर, आत्माराम, मन्मथमन्मथ, ‘अखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्’ आदि पद आये हैं-जिससे किसी को कोई भ्रम न हो जाय।

राजा परीक्षित ने अपने प्रश्नों में जो शंकाएँ की हैं, उनका उत्तर प्रश्नों के अनुरूप ही अध्याय 29 के श्लोक 13 से 16 तक और अध्याय 33 के श्लोक 30 से 37 तक श्रीशुकदेवजी ने दिया है। उस उत्तर से वे शंकाएँ तो हट गयीं हैं, परन्तु भगवान की दिव्यलीला का रहस्य नहीं खुलने पाया, सम्भवतः उस रहस्य को गुप्त रखने के लिये ही 33वें अध्याय में रासलीला- प्रसंग समाप्त कर दिया गया। वस्तुतः इस लीला के गूढ़ रहस्य की प्राकृत-जगत में व्याख्या की भी नहीं जा सकती; क्योंकि यह इस जगत की क्रीडा ही नहीं है।

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